@Saurabh Dwivedi & usha shukla
ऊषा शुक्ला लिव फाॅर अदर्स नाम से संस्था चलाती हैं। जिसका सीधा सा उद्देश्य दूसरों के लिए जीना है। जिंदगी सिर्फ अपने लिए होती कहाँ है ? जिंदगी वही जो जरूरतमंदों के लिए , देश के लिए और समाज के लिए जी जाए। हमारी जिंदगी की एक एक सांस गैरों के लिए समर्पित हो जाए तो जीवन सहज – सरल हो जाता है। इसी उद्देश्य से आप पर्यावरण संरक्षण से लेकर गरीब – जरूरतमंद के लिए काम करती हैं।
ऊषा शुक्ला स्वयं जिंदगी में एक मां के रूप में भी संघर्ष झेला तो वहीं सामाजिक जिंदगी और अस्तित्व के लिए अकेले जीवनयापन करने की राह पर चल पड़ी थीं। उन्होंने अनेकों संघर्ष से सामना किया , दुख – दर्द का सितम झेला पर आज उनके चेहरे को महसूस कर कहा जा सकता है कि आप एक अच्छी शख्सियत हैं जो एक सुखद जिंदगी जी रही हैं और ना समय ने उनको एक अच्छा जीवनसाथी दिया , जो प्रेम के उदाहरण बन गए और जिंदगी के हृदय से चेहरे में मुस्कुराहट का अस्तित्व व्याप्त कर दिया। आप महिलाओं के हित में सदैव खड़ी रहती हैं। ग्रामीण जीवन स्तर को उच्च बनाने के लिए प्रयासरत हैं। यह कहा जा सकता है ऊषा शुक्ला जैसी महिला समाज और परिवार का वास्तविक उदाहरण हैं। उनकी ही फेसबुक वाल से एक प्रेरक प्रसंग मिला जो मदद के भाव से बताता है कि कैसे मदद जीवन ऊर्जा बन जाती है।
मैं पैदल घर आ रही थी । रास्ते में एक बिजली के खंभे पर एक कागज लगा हुआ था पास जाकर देखा,
लिखा था:
इस रास्ते पर मैंने कल एक 50 का नोट गंवा दिया है मुझे ठीक से दिखाई नहीं देता है जिसे भी मिले कृपया इस पते पर दे सकते हैं
यह पढ़कर पता नहीं क्यों उस पते पर जाने की इच्छा हुई । पता याद रखा। यह उस गली के आखिरी में एक घऱ था। वहाँ जाकर आवाज लगाई तो एक वृद्धा लाठी के सहारे धीरे-धीरे बाहर आई। मुझे मालूम हुआ कि वह अकेली रहती है। उसे ठीक से दिखाई नहीं देता।
“माँ जी”, मैंने कहा – “आपका खोया हुआ 50 रुपया मुझे मिला है उसे देने आया हूँ ।”
यह सुन वह वृद्धा रोने लगी और बोली..
“बेटा, अभी तक करीब 50-60 व्यक्ति मुझे 50-50 दे चुके हैं। मै पढ़ी-लिखी नहीं हूँ, ठीक से दिखाई भी नहीं देता। पता नहीं कौन मेरी इस हालत को देख मेरी मदद करने के उद्देश्य से लिख गया है”
बहुत कहने पर माँ जी ने पैसे तो रख लिए । पर एक विनती की – ‘ बेटा, वह मैंने नहीं लिखा है किसी ने मुझ पर तरस खाकर लिखा होगा। जाते-जाते उसे फाड़कर फेंक देना मैनें हाँ कहकर टाल तो दिया पर मेरी अंतरात्मा ने मुझे सोचने पर मजबूर कर दिया कि उन 50-60 लोगों से भी उस वृद्ध”माँ” ने यही कहा होगा। किसी ने भी नहीं फाड़ा ।जिंदगी मे हम कितने सही और कितने गलत है, ये सिर्फ दो ही शक्स जानते है..
परमात्मा और अपनी अंतरआत्मा..!! मेरा हृदय उस व्यक्ति के प्रति कृतज्ञता से भर गया । जिसने इस वृद्धा की सेवा का उपाय ढूँढा । सहायता के तो बहुत से मार्ग हैं , पर इस तरह की सेवा मेरे हृदय को छू गई । और मैंने भी उस कागज को फाड़ा नहीं ।मदद के तरीके कई हैं सिर्फ कर्म करने की तीव्र इच्छा मन मॆ होनी चाहिए
कुछ नेकियाँ और कुछ अच्छाइयां..
अपने जीवन में ऐसी भी करनी चाहिए
जिनका ईश्वर के सिवाय..
कोई और गवाह् ना हो…!
कृष्ण धाम ट्रस्ट
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Saurabh Chandra Dwivedi
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Karwi Chitrakoot