SHARE
इस ज्ञान को समाज की मुख्यधारा के लोग जरूर समझें कि घर मे प्रेस वार्ता क्यों ? इसके बावजूद नाम लेकर भी सीधा आरोप ना लगा सकें तो कहावत चरितार्थ होती है ” सूप बोले तो बोले चलनी का बोले जिसमे बहत्तर छेद हों।

एक जरूरी बात है कि प्रेस क्लब आफिस हर जनपद मे होना चाहिए अगर आपके – हमारे जनपद मे एक प्रेस क्लब नही बन सका तो उसके पीछे राजनीतिक इच्छाशक्ति घर वाली प्रेस वार्ता करने की हो सकती है जिस पर स्थानीय जनता को भी सवाल करना चाहिए प्रशासन से भी कि एक जगह चौथे स्तंभ को क्यों नही दी जा सकी ?

देखने को मिलता है कि नेता जी गुपचुप प्रेस वार्ता करते हैं। नेता जी का करिंदा गुपचुप नंबर डायल कर तोता वाली भाषा बोलता है और घर से दहाड़ने को आतुर नेता जी के घर चुनिंदा आमंत्रित पत्रकार साथी पहुंचते हैं। कोई बुलाए तो पहुंचना संस्कार है इस पर कोई आपत्ति नही है।

Pls donate

बुन्देलखण्ड मे कहावत है कि अपने घर का शेर होता है आदमी और नेता अगर घर मे रहकर सवा शेर ना नजर आए तो सवाल कितना मजबूत है कि ऐसी क्या मजबूरी है कि घर मे रहकर भी जिस पे आरोप लगा रहे हैं उसका नाम ना ले सकें ? तो यह नेता जी को आत्म मंथन करने की ओर इशारा करता है।

घर और बाहर मे बहुत बड़ा अंतर होता है अगर बाहर करेंगे और खुल्ला खेल फर्रुखाबादी की तरह खेलकर डंके की चोट पर मुनादी कर बुलाएंगे कि आओ करो सवाल मैं हर सवाल का जवाब देने को तैयार हूं जैसे परशुराम और लक्ष्मण का संवाद हुआ था तो शोभा देता है कि हां प्रेस वार्ता हो हुई है।

घर वाली प्रेस वार्ता मे घर जैसे सवाल ही हो सकते हैं अन्यथा नेता जी का डर हो ना हो अगर सवाल बाहर वाला हो गया तो हो सकता है करिंदा फरसा चला दे मतलब कि धमकियाने लगे और यह सिखाने लगे कि इसे पत्रकारिता कहते हैं ?

मैं बताता हूं एक घटना

” ठंड के दिनों मे एक नेता जी गरीबों को कंबल बांटने आए थे तो सरकार और विपक्ष के सवालों पर एक पत्रकार से बहस शुरू हो गई तो लंबे चौड़े कद के नेता जी का कद चीनियों की तरह हो गया और तमतमाए चीनी सेना की तरह और पत्रकार भारतीय सेना की तरह जवाब दे रहा था , नेता जी को समझ आ गया तो दूसरे छोर की ओर निकल लिए लेकिन करिंदा पत्रकार को पत्रकारिता सिखाने लगा कि ऐसे पत्रकारिता नही होती। “

इस घटना से बिडंबना समझिए कि घर वाली प्रेस वार्ता और बाहर वाली प्रेस वार्ता मे कितना बड़ा अंतर होगा। इसलिए जनता को चाहिए कि वह मंदिर मे दान करने की तरह कम से कम एक प्रेस क्लब आफिस के लिए दान दे ताकि नेता जी हों या प्रशासन के आला अफसर सब उस आफिस मे आकर सवाल का जवाब देंगे तो थोड़े मानसिक दबाव मे रहेंगे और वाजिब सवाल जवाब हो सकेंगे अभी तो बहुतायत टेप रिकॉर्डर की तरह सबकुछ हो रहा है अपवाद को छोड़कर जैसे विज्ञान मे अपवाद एक नियम होता है।

इस ज्ञान को समाज की मुख्यधारा के लोग जरूर समझें कि घर मे प्रेस वार्ता क्यों ? इसके बावजूद नाम लेकर भी सीधा आरोप ना लगा सकें तो कहावत चरितार्थ होती है ” सूप बोले तो बोले चलनी का बोले जिसमे बहत्तर छेद हों। “

पॉलिटिक्स का पोटाश इतना दमखम वाला तो होना चाहिए कि खुलेआम सवाल लेने का दमखम रखा जाए अन्यथा आज समय डिजिटल मीडिया का है सोशल मीडिया का भी है जहां लाइव आकर जो मन मे आए बोल सकते हैं और लोग सुनकर अपनी प्रतिक्रिया दे देंगे फिर अगर आप नाम नही लेना चाहो तो लोग कहेंगे खैर हमे क्या करना है ? लेकिन नाम ना लेने का जोखिम ये है कि आपकी विश्वसनीयता घट जाती है और नेतृत्व की लकीर छोटी हो जाती है।

कुलमिलाकर यह समझने का वक्त है कि जो लोग सशक्त पत्रकारिता चाहते हैं वे जनपद मे एक प्रेस क्लब आफिस के लिए शानदार पहल करें जो जनता के दान से बने तो दानेदार पत्रकारिता जनता के लिए होने की संभावना बढ़ जाएगी अन्यथा पत्रकारिता घर वाली बाहर वाली के बीच पेंडुलम की भांति चौथा स्तंभ नजर आएगी।

लेखक / पत्रकार सौरभ द्विवेदी की कलम से

image_printPrint
5.00 avg. rating (98% score) - 1 vote