By :- Saurabh Dwivedi
यह छूने से फैलने वाली विदेशी बीमारी है। जो एक देश से दूसरे देश को आदमी से आदमी मे फैली है। इस बीमारी से बचना बहुत सरल काम था , संगरोधन कर देना। अमीश की किताब मेलूहा के मृत्युंजय में ” संगरोधन ” शब्द आया है। जिसका अंग्रेजी शब्द क्वारंटाइन है और सरल हिन्दी में स्थानीय निवासियों से प्रवासियों को अलग रखना। यदि यह बीमारी कहर ढा रही है तो सिस्टम की बदौलत खतरनाक हुई है। यह जानने-समझने के लिए गहराई से सोचना होगा।
कथानक के अनुसार जब शिव जम्मू-कश्मीर पहुंचते हैं , तब उनकी मुलाकात चित्रांगध से होती है। चित्रांगध उनके ठहरने की व्यवस्था करता है और वैद्य आयुर्वती से भी वहीं मुलाकात होती है।
चित्रांगध , शिव से कहता है कि सात दिनों तक यहीं ठहरना होगा बाद में हम आपको इससे भी खूबसूरत जगह पर ठहरने के लिए स्थान देंगे।
शिव कहता है कि अरे यह तो बड़ी खूबसूरत आरामदायक जगह है। हमें यहाँ बड़ा सुख है। चित्रांगध ने कहा कि यह मात्र सात दिनों तक संगरोधन के लिए है , तो शिव ने कहा कि संगरोधन क्यों ?
चित्रांगध का जवाब था कि कोई भी अप्रवासी आए और उसे अपने से अलग रखकर चिकित्सकीय परीक्षण करा लें तो उनमे बीमारियों का पता चल जाता है। इन सात दिनों में वैद्य बीमारी का इलाज भी कर देते हैं।
इसके यह लाभ हैं कि अप्रवासी द्वारा लाई हुई बीमारी से स्थानीय प्रजा उस बीमारी का शिकार नहीं होती। अर्थात उस समय की सभ्यता और व्यवस्था इतनी सजग थी कि कोई भी अप्रवासी आए तो उसको निगरानी मे अलग रखकर स्वास्थ्य परीक्षण किया जाता और बीमारी का इलाज किया जाता था। अगर यह कोई कल्पना भी हो तो भी वर्तमान कोरोना वायरस जैसे संक्रमण के लिए बड़ा दर्शन है।
इस बीमारी से आम जनता को बचाने के लिए कुछ बहुत बड़ा काम नहीं करना था। जो लोग प्लेन द्वारा आ रहे थे , उनको सख्ती से चौदह दिनों तक अलग रखा जाता और प्रतिदिन स्वास्थ्य जांच की जाती तो एक सीमित दायरे पर बीमारी रहकर समाप्त हो जाती।
किन्तु सिर्फ भारत ही नहीं विश्व के दो सौ बारह देश इस बीमारी से तबाह हो रहे हैं। वैश्विक स्तर पर अनेक देश बड़े सक्षम हैं , लेकिन उनका ध्यान युद्ध की ओर अधिक था नाकि स्थानीय देशवासी जनता को बचाने में।
बड़े – बड़े राजनीतिज्ञ संगरोधन को नहीं समझ पाए। संगरोधन अर्थात एक साथ रहने से रोकना , जिससे अप्रवासियों से स्थानीय निवासियों का संपर्क ना हो पाए।
भारत की हकीकत गांव तक से यही है कि कोई भी अप्रवासी गांव आया तो एक ग्राम प्रधान ने उस व्यक्ति को अलग रहने को नहीं कहा और क्वारंटाइन लेटर के बाद भी वह अप्रवासी गांव मे घूमा जिससे कोरोना संक्रमण शहर से गांव तक आ गया।
यहाँ वोट की राजनीति हावी रही और अफसरशाही ने भी आम आदमी की जिंदगी को खतरे मे डाला है। जनपद के अफसरों ने भी मानव जीवन को बचाने हेतु उस तत्परता से काम नहीं किया , जिससे इस बीमारी से सरलता से बचा जा सके। हर तरफ से चूक हुई तो वहीं धार्मिक कट्टरता ने भी मानव जीवन को खतरे मे डाला है।
इस बीमारी से भी निर्दोष लोगों का शिकार हुआ है। शासन – प्रशासन और राजनीतिक – सामाजिक जिम्मेदारों की असफलता का शिकार निर्दोष जनता हुई है। इस बीमारी से प्रत्येक मौत के जिम्मेदार समस्त जिम्मेदार लोग हैं , जिनको अपनी जय – जयकार पसंद है और अपनी जय के लिए हर वक्त हर मामले में सत्ता का रास्ता खोजा गया है।
कोरोना वायरस कोई बहुत बड़ी समस्या नहीं है। इसे समस्या बनाया गया है। इसे एक बड़ी समस्या के रूप मे बदला गया है। यह जानलेवा अगर साबित हो रहा है तो हमारी चतुर्दिक असफलता की वजह से , चूंकि जनपद के एक जिलाधिकारी को भी चौथे खंभे के कथित पत्रकार देवता से कम नहीं पूजते और यही वजह है कि वह जिलाधिकारी स्वयं को राजा समझ बैठता है और फिर राजा की तरफ प्रजा उंगली कैसे उठाए ? चूंकि तीन उंगलियां अपनी ओर आती हैं , वह शासन – प्रशासन की उंगलियां हैं और अंततः कमी पर उठी हुई उंगली तोड़ने का प्रयास शुरू हो जाता है।
अब जनता विचार करे कि अभी भी इस जानलेवा बन चुकी बीमारी से बचने का जो रास्ता है , उसे कैसे अपनाया जाए ? कैसे गांव – गांव मे आ रहे मजदूर संगरोधन हो सकें ? वह कड़े नियम से अलग रहें और प्रयास कर के स्वेच्छा से भी उन्हें अलग रहने के लिए तैयार किया जा सके।
यदि फ्लाइट से आने वालों को फाइव स्टार होटल जैसी सुविधा देकर पूरे चौदह दिनों तक अलग रखा जाता है और चिकित्सकीय परीक्षण होता रहता फिर एक – एक का इलाज होता तो यह बीमारी शहर की शहर मे समाप्त हो जाती। या फिर विदेशी कनेक्टिविटी पहले ही कुछ महीने के लिए खत्म कर दी जाती बावजूद इसके संगरोधन ही वह मंत्र है , जिससे इस बीमारी को फर्स्ट स्टेज पर मात दी जा सकती थी।
किसी भी देश और जनता के लिए वक्त अभी भी है कि स्वयं निगरानी समिति के स्वतः सदस्य बन जाइए और जो लोग अभी भी बाहर से आ रहे हैं , उनके संगरोधन की व्यवस्था के लिए निःसंकोच आवाज दीजिए तब जाकर आपकी – अपनी जान बचेगी और अर्थव्यवस्था भी गडबड नहीं होगी।
असल बात यह भी है कि प्रशासन की कमियों पर कौन बोले ? कौन जीते जी अपना नुकसान करेगा ? भले मर जाएंगे पर जीते जी लाभ मे रहेंगे और चंद लोग ऐसे हैं कि वह प्रशासन को देवता बनाकर अपना वैभव कायम रखते हैं। यह बीमारी अन्य तमाम कारणों के साथ प्रशासनिक व्यवस्था की असफलता का सूचक है।
लाकडाऊन से होने वाले नुकसान के आकलन को तय कर लीजिए और फिर उस नुकसान की राशि को संगरोधन मे खर्च कर दीजिए तो संगरोधन व्यवस्था में नुकसान से कम राशि खर्च होगी , किन्तु स्वर्ग सी व्यवस्था देकर नर्क की जिंदगियों क्यों बचाना ?
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[ Saurabh chandra Dwivedi
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karwi Chitrakoot]
बहुत श्रम से तैयार किया गया आलेख, बहुत उपयोगी और चिंतन योग्य।
सहित दिशाबोध हेतु साधुवाद सौरभ जी