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By : Saurabh Dwivedi

कोई भूखा ना सोए , कोई भूखा ना रहे और ऐसा ही स्वरनाद स्वराज के परिकल्पना वाले राज्य और राष्ट्र से गूंजता रहा। यह सच है कि लंच पैकेट बंटे और कम्युनिटी किचन भी चला , साथ ही सूखा राशन सरकारी – गैर सरकारी रूप से पहुंचता रहा। परंतु हमें जिंदगी और भूख की आशा को महसूस करना होगा। दो राज्यों की सीमा पर बसा हुआ वैश्विक धार्मिक स्थल मे वैश्विक महामारी का ऐसा असर कि सन्यासी जमीन पर पड़ा भोजन उठाने को मजबूर हो गया। यह मजबूरी समझने के लिए हृदय तल से महसूस करना होगा तो बंदर और सन्यासी के बीच से जिंदगी और भूख – प्यास को महसूस कर सकते हैं।

चित्रकूट परिक्रमा मार्ग मे हम सेवा के लिए पहुंचे ही थे कि अचानक एक बंदर और सन्यासी के बीच भूख की जंग छिड़ी चुकी थी। लगभग पांच से दस सेकंड की जंग में जीवन की आशा का अहसास हुआ।

बेशक बंदर भूखा रहा होगा। वह किसी किनारे से भागता हुआ आया और सन्यासी का पन्नी से बंधा हुआ भोजन छीन कर भागने लगा तो सन्यासी भी उतनी ही तीव्रता के साथ बंदर का लठ्ठ लेकर पीछे किए।

बंदर ने लठ्ठ से भयभीत होकर आधे से ज्यादा खाना जमीन पर फेंक दिया। जमीन पर फेंके हुए भोजन को उठाने के लिए कोई सोच नहीं सकता था , स्वयं मैं भी नहीं सोच सकता था।

अब इसमे मनोवैज्ञानिक कारण छिपा हुआ है। जिस परिक्रमा मार्ग पर हजारों श्रद्धालू प्रतिदिन आते थे। और कुछ श्रद्धालू भंडारा आयोजित करते थे। यहाँ कोई ना कोई भंडारा प्रतिदिन होता रहता था।

कामतानाथ का कोई ना कोई भक्त बंदर और सन्यासियों की सेवा करता रहता था। आधी रात के बाद से कम से कम रात बारह बजे तक कोई ना कोई भक्त परिक्रमा करता था। यह ऐसा स्थल जहाँ दिन – रात नाम के लिए होते हैं पर हकीकत मे अंग्रेंजों के साम्राज्य की तरह सूर्य कभी अस्त होता ही नहीं !

आज हालात क्या हैं ? कोरोना वायरस के फैलते संक्रमण को रोकने के लिए धार्मिक स्थल के पट बंद कर दिए गए हैं , पर पेट का पट बंद नहीं है। साफ है कि श्रद्धालु नहीं पहुंच रहे हैं।

बेशक कुछ समाजसेवी सन्यासी और बंदरों की सेवा के लिए पहुंचे हैं। अफसर भी अपनी-अपनी सीमा क्षेत्र के संत – सन्यासियों को राशन का बैग देते हुए तस्वीरों मे नजर आए हैं।

सभी अच्छी तस्वीरों के साथ एक हकीकत की तस्वीर यह भी है ! एक सन्यासी जमीन से भोजन उठाकर खाने को मजबूर हो गया। चूंकि उसे आशा नहीं थी कि अब कोई भोजन देने आएगा भी ! संभवतः कब तक भोजन मिलता है या कब तक नहीं मिलता है ? यह बड़ा सवाल है।

उधर बंदर को भी भूख लगी थी। इसलिए बंदर ने छीन लिया था। आपको नहीं लगता कि सन्यासी जनता के हक को हमारे ही बीच के बंदरों ने खूब छीना है। बहुत से बंदरों मे एक बंदर बड़ी तोंद वाला एकदम मस्त ताजा होता है और ललमुंहा बंदर सबका सरदार होता है। यह सरदार बंदर ना सिर्फ बंदरों का हक छीनता है बल्कि बाग का बाग उजाड़ भी देता है।

हम आम जनता भी कुछ ऐसी ही जिंदगी जी रहे हैं , जिसमें कोई ना कोई भूखा ताकतवर बंदर हमारा हक छीन लेता है और ऐसा लगातार होता चला आ रहा है। हम सन्यासी की तरह बीन कर खाने को मजबूर हो जाते हैं। चूंकि जिंदगी जीने के लिए भोजन से ईंधन मिलता है और उस ईंधन की ऊर्जा से संघर्ष जारी रखते हैं।

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यहीं से समझने योग्य है कि संतुलन कितना जरूरी है। यदि श्रद्धालू आते रहते तो सन्यासी जमीन पर गिरा भोजन निन्यानवे प्रतिशत संभावना से कहा जा सकता है कि नहीं उठाता , यह आकलन है। किन्तु असंतुलन ने उसे मजबूर कर दिया कि पेट की भूख मिटानी है। चूंकि मरते दम तक जिंदगी सभी जीना चाहते हैं , यूं ही कोई मौत को गले नहीं लगाना चाहता !

यह तस्वीर मध्यप्रदेश परिक्रमा मार्ग के परिक्षेत्र की है। वैसे उत्तर प्रदेश परिक्रमा मार्ग परिक्षेत्र और मध्यप्रदेश परिक्षेत्र में कानपुर से नागपुर की दूरी के बराबर है अर्थात नाक से कान के बीच ” एक बित्ते ” की दूरी। एक बारीक से अंतर में शासन – प्रशासन का अंतर आ जाता है पर भूख – प्यास राज्यों की सीमाओं में नहीं बंटी होती है। वह एक जैसी होती है और आशा विहीन व्यक्ति भूखा पेट जमीन से भोजन उठाकर खाने को मजबूर हो जाता है।

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