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By – Saurabh Dwivedi

सत्तर साल में देश की जनता राजनीति और सत्ता परिवर्तन से अंदुरूनी हालात बदलने की आशा में मतपत्र से ईवीएम तक का सफर तय कर चुकी है। पर भ्रष्टाचार से आजादी कब ?

जब बचपने में था , स्कूल में इस दिन सांस्कृतिक कार्यक्रम होते और हमें इस बात की खुशी होती कि आज किताबों की दुनिया और मास्टर जी की छड़ी से आजादी मिल चुकी है। मन प्रफुल्लित होता था। स्कूल से कुछ पुरस्कार प्राप्त कर एवं जलेबी – बूंदी का जलपान कर घर वापस आ जाते थे।

बचपन में स्वतंत्रता दिवस का यही अर्थ था। यह भी अहसास नहीं था कि कल पाकिस्तान का स्वतंत्रता दिवस था और आज हमारा अर्थात भारत का स्वतंत्रता दिवस है। पाकिस्तान सिर्फ भारत ही नहीं वैश्विक स्तर पर आतंक की फैक्ट्री से अधिक कुछ और नहीं नजर आता। यह भी भारत के लिए एक बड़ी समस्या है।

किन्तु देश के नागरिकों को महसूस करना होगा कि राजनीति और सत्ता परिवर्तन से भारत भ्रष्टाचार मुक्त नहीं हुआ है। प्रशासन की अंधेरगर्दी और भ्रष्टता के गुलाम हैं हम !

अपवाद स्वरूप कुछ ईमानदार राजनीतिज्ञ एवं ऐसे ही कुछ अफसरों को छोड़कर एक बड़े दलाल तंत्र की गुलामी की जंजीरों से हम जकड़े हुए हैं।

सरकार कोई भी आए वह कितना भी नारा दे कि भ्रष्टाचार मुक्त देश – प्रदेश होगा। किन्तु नोटबंदी जैसे निर्णय के दौरान भी कुर्सी पर बैठा बैंक मैनेजर भी घूस लेकर काले धन को सफेद धन में तब्दील कर रहा था। इस पूरे काम में सीए भी सम्मिलित रहे , जिसकी बोहनी हुई वह लाखों – करोड़ो के वारे न्यारे कर चुका था।

स्पष्ट है कि राष्ट्र हित हेतु लिए गए निर्णय पर नागरिक कम अफसर और दलाल अर्थव्यवस्था को रसातल पर पहुंचाने के लिए तत्पर थे , फर्क सिर्फ इतना सा कि वह अपना घर भर रहे थे।

राष्ट्र की सबसे छोटी इकाई गांव होता है। ग्राम सचिव एक तरह से अघोषित सरकारी ग्राम प्रधान होता है। ग्राम प्रधान अनेक तरह के होते रहते हैं परंतु ग्राम सचिव पूर्ण नौकरी काल तक गांव की सेवा करने हेतु होता है , परंतु वह भी परिवार रजिस्टर की नकल देने से लेकर ग्राम के निर्माण कार्यों पर घूसखोरी – कमीशनखोरी करता है।

बेशक लाल किले के प्राचीर से प्राचीन भारत व भविष्य के भारत के तुलनात्मक भाषण भी परंपरागत तरीके से सुने जाएंगे और सुने जाते रहे हैं। यह विश्व के लिए आवश्यक है। परंतु नागरिक के तौर पर भारत और भारत में जीवन के लिए राजनीति से इतर नागरिक समूह को चिंतन करना होगा।

असल में इस भ्रष्ट अफसर तंत्र की बीमारी को खत्म करने के लिए मोह – भय और रिश्ते की तिलांजलि देनी पड़ती है। हम जानते हुए भी गांव के सचिव से लेकर लेखपाल और जनपद स्तरीय अफसरों के खिलाफ आवाज बुलंद नहीं कर पाते।

सिर्फ इतना ही नहीं जो लोग इस भ्रष्ट तंत्र के खिलाफ आवाज बुलंद करते हैं , उनका साथ भी नहीं देते हैं। स्वर्णिम स्वप्न देखने से बेहतर है कि वास्तु स्थिति को समझते हुए स्व हितों से परे इस दिन संकल्प लें कि भ्रष्टाचार मुक्त राष्ट्र के लिए काम करेंगे।

आजादी की परिकल्पना तभी साकार हो सकेगी और हमें जीवन को भी महसूस करना होगा। अगर घर – परिवार और समाज के अंदर जीवन ही घुट रहा है तो आजादी निरी स्वर्णिम स्वप्न के सिवाए कुछ और नहीं कही जा सकती है। जिस स्वर्णिम स्वप्न को भारत की जनता बदतर हालात के वक्त भी देखती रहती है।

यही छलावा है कि मूल आवश्यकता पर विचार नहीं कर पाते। वक्त है कि राजनीति और सत्ता परिवर्तन की सुधारात्मक प्रक्रिया से इतर नागरिक समूह को राष्ट्र हित हेतु वैचारिक समृद्धि से काम करना होगा। भारत के कोढ़ भ्रष्टाचार के खिलाफ और भ्रष्ट तंत्र के किल्विसों को भी खत्म और जर्जर करना होगा।

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