
पिछले तीन दिनों से धर्म नगरी चित्रकूट में आयोजित श्रीमद्भागवत कथा केवल एक धार्मिक आयोजन नहीं रही, बल्कि वह एक सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और राष्ट्रीय चेतना का पुनर्जागरण बनकर उभरी।
फक्कड़दास महाराज ने जानकारी दी कि कथा व्यास परशुराम देवाचार्य जी महाराज की दिव्य उपस्थिति में कलश यात्रा से आरंभ हुआ यह कार्यक्रम अब तक के अनुभवों में न केवल अविस्मरणीय रहा, बल्कि उसकी प्रभावशीलता ने जनमानस को भीतर तक झकझोरा है।
आरंभ — कलश यात्रा :
कथा की भव्य कलश यात्रा नगर में जब प्रारंभ हुई, तब ऐसा प्रतीत हुआ मानो भारत की सांस्कृतिक चेतना स्वयं नगरवासियों के बीच उतर आई हो। महिला श्रद्धालुओं के सिर पर स्वर्णिम कलश, बच्चों की टोली, धर्म ध्वजाएं और मंगलध्वनि में लहराते शंखनाद—यह दृश्य न केवल आस्था का था, बल्कि संयम, सौंदर्य और सनातन परंपरा का सार्वजनिक प्रदर्शन भी था।
इस यात्रा ने यह स्पष्ट कर दिया कि धर्म केवल पूजा-पद्धति का विषय नहीं है, बल्कि लोक की चेतना का मेरुदंड है।
प्रथम दिवस सृष्टि और साधना की शुरुआत :
कथा के प्रथम दिवस पर व्यासपीठ से निकले विचारों ने श्रोताओं को सृष्टि की उत्पत्ति के गूढ़ रहस्यों से अवगत कराया। ब्रह्मा की उत्पत्ति, नारद की जिज्ञासा और ईश्वर के स्वरूप की व्याख्या ने यह बताया कि ज्ञान की शुरुआत मौन से होती है और मौन का मूल “श्रद्धा” है।
कथावाचक के वचनों में जब दर्शन और विज्ञान का समन्वय दिखा, तब लगा कि भागवत केवल धर्म ग्रंथ नहीं, एक ब्रह्मांडीय ग्रंथ है।
द्वितीय दिवस धर्म की नींव पर ध्रुवत्व :
ध्रुव चरित्र का वर्णन जब व्यास जी ने किया, तब श्रोताओं की आँखें सजल हो उठीं। एक बालक की जिद और भक्ति, जो उसे सीधे ईश्वर तक ले जाती है—यह कथा केवल एक बाल भक्त की नहीं, बल्कि हर उस व्यक्ति की कथा बन जाती है जो विपरीत परिस्थितियों में भी अपने संकल्प पर अडिग रहता है।
यह दिन बालमन में ईश्वर को पाने की शक्ति का प्रतीक बन गया।
तृतीय दिवस — प्रह्लाद की भक्ति, नृसिंह का न्याय :
तीसरे दिन कथा ने जो ऊँचाई प्राप्त की, वह भक्त और भगवान के अद्वितीय संबंध का जीवंत उदाहरण बन गई। हिरण्यकश्यप का अहंकार और प्रह्लाद की निष्ठा—यह संघर्ष हर युग में दोहराया जाता रहा है।
नृसिंह अवतार का प्राकट्य उस चेतना का रूप है जो यह सिखाती है कि ईश्वर न आस्था की सीमा में बंधा है, न समय की बाधा में। वह तब आता है, जब अधर्म सिर उठाता है।
निष्कर्ष :
भागवत कथा का यह प्रारंभिक चरण यह संकेत दे चुका है कि यह आयोजन केवल एक धार्मिक परंपरा का निर्वहन नहीं, बल्कि समाज के अंतर्मन को फिर से सांस्कृतिक संस्कारों से सजाने का एक प्रयास है।
व्यासपीठ की वाणी जब मौन कर दे, और श्रद्धालु केवल भाव में बह जाएँ—तब समझना चाहिए कि कथा ने असर किया है।
“यह कथा नहीं, चेतना है। यह श्रोता नहीं, साधक बनाती है।”
