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एक सुखद आनंदित जीवन जीने मे संभोग हर औरत और पुरूष के जीवन मे महत्वपूर्ण होता है। लेकिन संभोग सिर्फ आकर्षण मे किया जाए या देह को नोचकर किया जाए वो जीवन को बर्बाद कर देता है। वहीं गहरे प्रेम और अहसास से होने वाला संभोग चरमसुख का वो आनंद देता है जिसे महसूस कर सभी खूबसूरत और अद्भुत जीवन जी सकते हैं।

हाँ। यहाँ सबसे खतरनाक समस्या एक अच्छे सेक्स पार्टनर की हो गई है। एक अच्छे प्रेमी हो गई है। जहाँ प्यार नही होता वहाँ जबरन सेक्स हो जाता है। शादी शुदा जिंदगी मे भी एक औरत जीवन भर अनचाहे भी हो चुके पति से सेक्स करवाने को मजबूर होती है। या फिर एक औरत सुखमय प्रेम भरे सेक्स कः लिए तरसती है कि एक ऐसा संभोग हो जो उसे चरमसुख तक ले जाए इन्ही सब कारण से कुंठित जीवन हो जाता है और हम एक जन्म बेकार ही गंवा देते हैं। जैसे बारिश को मौसम का इंतजार होता है वैसे ही संभोग को भी माहौल का इंतजार होता है और एक सही माहौल सुगंधित वातावरण मे जब दो प्रेम करने वाले आलिंगनबद्ध होते हैं तब वो संभोग साधना हो जाता है। इसलिए यहाँ जानिए और वैसे जीवन जीने का प्रयास करिए।

समान रूप से शारीरिक सम्बन्धों द्वारा भोगा गया आनन्द ही सम्भोग है। इसमें सेक्स का आनन्द स्त्री-पुरुष को समान रूप से प्राप्त होना आवश्यक है। स्खलन के साथ ही पुरुष को तो पूर्ण आनन्द की प्राप्ति हो जाती है और सेक्स सम्बन्ध स्थापित होते ही पुरूष का स्खलन निश्चित हो जाता है। यह स्खलन एक मिनट में भी हो सकता है तो दस मिनट में भी। अर्थात् पुरुष को पूर्ण आनन्द की प्राप्ति हो जाती है। इसलिए मुख्य रूप से स्त्री को मिलने वाले आनन्द की तरफ ध्यान देना आवश्यक है। अगर स्त्री इस आनन्द से वंचित रहती है, इसे सम्भोग नहीं माना जाना चाहिए। इस वास्तविकता से व्यक्ति पूरी तरह से अनभिज्ञ होकर अपने तरीके से सेक्स सम्बन्ध बनाता है और स्त्री के आनन्द की तरफ कोई ध्यान नहीं देता है। इसे केवल भोग ही मानना चाहिए। सम्भोग की वास्तविकता को समझे बिना इसे जानना मुश्किल होगा। विवाह के बाद व्यक्ति सम्भोग करने के स्थान पर भोग करता है तो इसका मतलब यह है कि वह इस तरफ से अनजान है कि स्त्री को सेक्स का पूरा आनन्द मिला कि नहीं। सम्भोग शब्द की महत्ता को समझें। स्त्री को भोगें नहीं, समान रूप से आनन्द को बांटे। यही संभोग है।
           युवक-युवती जब विवाह के उद्देश्य को समझ विवाह-बंधन में बंधते हैं तो वे इस बात से अवगत होते हैं कि उनके प्रेम भरे क्रिया-कलापों का अंत संभोग होगा। प्रत्येक शिक्षित युवक-युवती यह जानते हैं कि संभोग विवाह का अनिवार्य अंग है। यदि कोई सहेली ऐसी नवयुवती से पूछती है कि तू विवाह करने तो जा रही है किन्तु यह भी जानती है कि संभोग कैसा होता है ? वो या तो इसका उत्तर टाल जाएगी अथवा कह देगी कि उसके बारे मे जानने की क्या आवश्यकता है? संभोग तो पुरुष करता है। इसलिए उसे ही जानना चाहिए कि संभोग कैसे करना चाहिए।
           ऐसे प्रश्नों पर युवक हंसकर उत्तर देता है, भला यह भी कोई पूछने की बात है। संभोग करना कौन नहीं जानता।

संभोग आरंभ करने की स्थिति

           यह ठीक है कि अनेक प्रकार की काम-क्रीड़ा से स्त्री संभोग के लिए तैयार हो जाए और उसकी योनि तथा पुरुष के शिश्न मुण्ड में स्राव आने लगे तो योनि में शिश्न डालकर मैथुन प्रारम्भ कर देना चाहिए। परन्तु जिस बात पर हमें विशेष बल देना चाहिए वह यह है कि योनि में शिश्न डालने के पश्चात् ही काम-क्रीड़ाओं को बंद नहीं कर देना चाहिए, जिनके द्वारा स्त्री को संभोग के लिए तैयार किया गया है। यह ठीक है कि समागम के कुछ आसन ऐसे होते हैं जिनमें बहुत अधिक प्रणय क्रीड़ाओं की गुंजाइश नहीं होती, परन्तु ऐसे आसन बहुत कम होते हैं। योनि में शिश्न के प्रवेश करने के बाद जब तक संभव हो सके इन क्रियाओं को जारी रखना चाहिए। यदि किसी आसन में नारी का चुम्बन लेते रहना संभव न हो तो स्तनों को सहलाते और मसलते रहना चाहिए। अगर स्तनों को मसलना या पकड़कर दबाना भी संभव न हो तो इसके चुचकों का ही स्पर्श करते रहना चाहिए। इससे तात्पर्य यह है कि इस समय जो भी प्रणय-कीड़ा संभव हो सके, उसे जारी रखना चाहिए। इससे काम आवेग में वृद्धि होती है, मनोरंजन बढ़ता है और स्त्री के उत्साह में वृद्धि होती है।

प्रणय क्रीड़ाएं अनिवार्य विषय

           जो लोग मैथुन कार्य प्रारम्भ होते ही प्रणय क्रीड़ा बंद कर देते हैं, वे प्रणव-क्रीड़ा को मैथुन से अलग मानते हैं। उनकी धारणा है कि मैथुन कार्य प्रारम्भ होते ही प्रणय क्रियाओं की आवश्यकता समाप्त हो जाती है। यह धारणा बिल्कुल गलत है। इन दोनों चीजों को एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता। इस स्थिति में आकर प्रणय-क्रीड़ाओं को एकदम बंद कर देने से वह सिलसिला टूट जाता है जिसमें स्त्री रुचि लेने लगी थी।

इस बात को सदा याद रखना चाहिए कि काम-क्रीड़ा के दो उद्देश्य होते हैं- एक तो इस क्रिया द्वारा आनन्द प्राप्त करना और दूसरे दोनों सहयोगियों-विशेषतया-स्त्री को प्रणय-क्रिया के अंतिम कार्य अर्थात् संभोग के लिए तैयार करना। इन दोनों बातों पर ध्यान देने से यह स्पष्ट हो जाएगा कि यदि संभोग की स्थिति पर पहुंचकर प्रणय-क्रीड़ा में अनावश्यक अवरोध पैदा कर दिया जाए या इस क्रीड़ा को बंद ही कर दिया जाए तो स्त्री के मन में झुंझलाहट पैदा हो जाएगी। इस बात को अधिक स्पष्ट करने के लिए इस दृश्य की कल्पना कीजिए।
           पुरुष नारी के गले में बाहें डाले हुए उसके स्तनों का चुम्बन कर रहा है, साथ ही वह उन्हें मसलता जाता है और उसके चूचुकों को भी समय-समय पर स्पर्श कर लेता है। स्वाभाविक है कि इससे नारी के उत्साह और काम के आवेग में वृद्धि होती है। वह उसके हाथ को अपने स्तनों पर और दबा लेती है। इसका तात्पर्य यह है कि वह चाहती है कि पुरुष उनको और जोर से मसले, क्योंकि इससे उसे और अधिक आनन्द आता है। पुरुष इस संकेत को दूसरे रूप में लेता है और समझता है कि स्त्री पर कामोन्माद का पूरा आवेग चढ़ चुका है। बस वह स्तनों को मसलना बंद करके नारी की योनि में अपने शिश्न को प्रविष्ट करने की तैयारी करने लगता है। इससे स्त्री को बड़ी निराशा होती है। पुरुष उसकी योनि में शिश्न डाले, इसमें तो उसे कोई आपत्ति नहीं है, किन्तु वह यह नहीं चाहती कि वह स्तनों को मसलना बंद कर दे। उसे उसके मर्दन (मसलने) से जो आनन्द प्राप्त हो रहा था, उसका सिलसिला बीच में टूट गया। वह यह नहीं चाहती थी। इसलिए यह आवश्यक है कि संभोग क्रिया आरंभ होते समय और उसके जारी रहते हुए न तो प्रणय-क्रीड़ा को समाप्त करें और न उसमें कोई रुकावट ही आने दें।
           यह तो सभी लोग जानते हैं कि संभोग क्रिया में पुरुष और स्त्री दोनों ही समान रूप से भागीदार होते हैं, किन्तु बहुत से लोगों का विचार यह है कि पुरुष सक्रिय भागीदार की भूमिका अदा करता है तथा स्त्री केवल सहन करती है अथवा स्वीकार मात्र करती है यह विचार भ्रांतिपूर्ण है। स्त्रियों के जनन अंग बने ही इस प्रकार के हैं कि वे संभोग में कभी निष्क्रिय रह ही नहीं सकते। यूरोपीय देशों की अनेक कुमारी नवयुवतियों ने इस बात को स्वीकार किया है कि जब पहली बार किसी पुरुष ने उनके उरोजों को पकड़कर चूचुकों को धीरे-धीरे सहलाना शुरू किया तो उनकी योनि में विशेष तरह की फड़क-सी अनुभव हुई और यह इच्छा जाग्रत हुई कि कोई कड़ी वस्तु उसमें जाकर घर्षण करें।
           कुछ पत्नियां ऐसी होती हैं जो जान-बूझकर निष्क्रिय भूमिका अदा करना चाहती हैं। वे समझती हैं जब पति उसका चुम्बन, कुचमर्दन (स्तनों को सहलाना, मसलना) आदि करे तो उन्हें ऐसा आभास देना चाहिए कि पुरुष के इस कार्य से उन्हें आनन्द नहीं मिल रहा है। उन्हें आशंका होती है कि यदि वे आनन्द प्राप्ति का आभास देंगी तो पति यह समझ लेंगे कि वे विवाह से पूर्व संभोग का आनन्द ले चुकी हैं। इस प्रकार के विचारों को उन्हें अपने मन से निकाल देना चाहिए।
           संभोग करते समय इस बात को याद रखना चाहिए कि संभोग में सबसे अधिक आनन्द प्राप्त करने के लिए जिस आवेग की आवश्यकता होती है, वह तभी प्राप्त हो सकता है जब योनि में शिश्न निरंतर गतिशील रहे। इस गति का संबंध हरकत करने से है। इस स्थिति में शिश्न कड़ा और सीधा होकर योनि की दीवारों की मुलायम परतों तथा गद्दियों के सम्पर्क में आ जाता है। इसके फलस्वरूप शिश्न के तंतुओं में अधिकाधिक तनाव आ जाता है जिसकी समाप्ति वीर्य स्खलन के साथ होती है।

संभोग करते समय बहुत से पुरुषों को आशंका रहती है कि योनि में उनका लिंग प्रवेश करते ही वे स्खलित हो जाएंगे। इसी आशंका से भयभीत होकर वे योनि में शिश्न प्रविष्ट करके जल्दी-जल्दी हरकत करने लगते हैं और इस प्रकार वे बहुत जल्दी स्खलित हो जाते हैं। सेक्स के वास्तविक आनन्द की प्राप्ति के लिए यह आवश्यक है कि शिश्न के पूर्णतया प्रविष्ट हो जाने के बाद स्त्री पुरुष दोनों स्थिर होकर चुम्बन मर्दन आदि करें। इसके थोड़ी देर बाद फिर गति आरंभ करें। जब फिर स्खलन होने की आशंका होने लगे, तब फिर रुककर चुम्बन आदि में प्रवृत्त हो जाएं, इससे दोनों को अधिकाधिक आनन्द प्राप्त होगा। इस स्थिति में स्त्री को चाहिए कि जब पुरुष गति लगाए तब वह योनि को संकुचित करे, जितना अधिक वह संकुचित करेगी, उतना ही पुरुष का आनन्द बढ़ेगा और वह क्रिया करने लगेगा। ऐसा करने से स्त्री और पुरुष दोनों को आनन्द आएगा।
           इस भांति रुक-रुककर गति लगाने से स्त्री पूर्ण उत्तेजना की स्थिति में पहुंच जाती है। उस समय उसकी इच्छा होती है कि अब पुरुष जल्दी-जल्दी गति देकर अपने-आपको और स्त्री दोनों को स्खलित कर दे। उस समय पुरुष को जल्दी-जल्दी गति लगानी चाहिए, स्त्री को भी इसमें अपनी ओर से पूरा सहयोग देना चाहिए। अधिकांश स्त्रियों की यह धारण सही नहीं है कि गति लगाना केवल पुरुष का ही काम है।
           जब कुछ देर तक स्त्री-पुरुष के यौन अंग एक-दूसरे पर घात-प्रतिघात करते रहते हैं तो इस क्रिया से अब तक मस्तिष्क को जो आनन्द मिल रहा था, वह बढ़ते-बढ़ते इतना अधिक हो जाना हो जाता है कि मस्तिष्क इससे अधिक आनन्द बर्दाश्त नहीं कर पाता। इस समय स्त्री-पुरुष यौन आनन्द की चरम सीमा पर पहुंच चुके होते हैं जिसे चिकित्सा विज्ञान की भाषा में चरमोत्कर्ष कहा जाता है। ऐसी परिस्थिति में मस्तिष्क अपने आप संभोग क्रिया को समाप्त करने के संकेत देने लगता है। पुरुष व स्त्री स्खलित है जाते हैं। पुरुष के शिश्न से वीर्य निकलता है और स्त्री की योनि से पानी की तरह पतला द्रव्य।

Part 1

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