@Sushma pandey
जब कभी भी मुझे कृष्ण का स्मरण हुआ है, उस पल में मैं निराशा, बेबसी, द्वंद, हताशा, दुःख, नाउम्मीदी से जूझ रही होती थी कृष्ण कभी भी मेरे लिए प्रेम के देवता नहीं रहे। प्रेम के लिए मैंने सदैव शिव को ही अपना आराध्य माना है। कृष्ण मेरे लिए योद्धा रहे। इतिहास के सबसे बड़े योद्धा। जो इतिहास के सबसे बड़ा धर्मयुद्ध “महाभारत ” के सूत्रधार बने। कृष्ण मेरे लिए हमेशा ऊर्जा, सकारात्मकता, प्रकाश के स्रोत रहे हैं।
कृष्ण जन्माष्टमी के मौके पर मुझे कृष्ण से जुड़ी कुछ बातें याद अा रही हैं। मुझे महसूस हो रहा है कि उन्हें लिखा जाना चाहिए। इसे लिखकर मुझे सुकून मिलेगा। शायद आपको भी मिले।
कृष्ण ने स्वयं कहा है कि उनका जन्म धर्म की स्थापना के लिए हुआ है। उन्होंने कभी नहीं कहा कि वह किसी अन्य मकसद से इस धरती पर आए हैं। यानी धर्म की स्थापना ही पहला और अंतिम लक्ष्य था कृष्ण का। कृष्ण अपने लक्ष्य के प्रति सजग, समर्पित रहना सीखाते हैं। कृष्ण सिखाते हैं कि चाहे कितनी ही प्रतिकूल परिस्थितियों में आपको जीवन जीना पड़े, अपने लक्ष्य के प्रति एकनिष्ठता बनाए रखें। यही उन्होंने पांडवों को सिखाया, जब वे वनवास और अज्ञातवास भोग रहे थे।
उन्होंने पांडवों को समझाया कि अतीत में नहीं वर्तमान में जियो। देखो आज तुम वनवासी हो, तुम्हारा सब कुछ छीन लिया गया है। तुम इधर उधर छिपते हुए भटक रहे हो। लेकिन मत भूलो कि तुम्हारा लक्ष्य क्या है। तुम्हारा लक्ष्य हमेशा से अपना सम्मान प्राप्त करना था और रहना चाहिए। ज़मीन, राज्य, धन आता जाता रहता है। लेकिन तुम हस्तिनापुर, इंद्रप्रस्थ से बेइज़्ज़त कर के निकाले गए हो। यह तुमको याद रखना है। तुम्हारा लक्ष्य जब तक पूर्ण न हो जाए, तुमको हौसला नहीं छोड़ना है।
यह बात स्पष्ट है कि कृष्ण न होते तो पांडव कभी अपने लक्ष्य को लेकर सजग न होते। वे तो स्वयं जुए में सब हार चुके थे। उन्हें दुर्योधन, शकुनि की साज़िश का एहसास नहीं था। यह तो कृष्ण की चेतना थी, जिसने पांडवों को राह दिखाई और उन्होंने अपने अधिकार, सम्मान, धर्म की स्थापना के लिए युद्ध किया।
कृष्ण ही वह देवता है जिन्होंने कभी भी मर्यादा, नैतिकता का बोझ अपने ऊपर नहीं रखा। न कृष्ण पर राम की तरह मर्यादा पुरुषोत्तम होने का दबाव था और न ही शिव की तरह समाधिस्थ होने की ज़रूरत। कृष्ण का जन्म हुआ था धर्म की स्थापना के लिए। इसलिए धर्म की स्थापना के लिए जो भी करना ज़रूरी था, आवश्यक था कृष्ण ने किया। बिना इसकी परवाह के कि क्या उचित, अनुचित, मर्यादा की श्रेणी में आता है। कृष्ण जानते थे कि उन पर भविष्य में प्रश्न उठाए जाएंगे। लोग उनसे कहेंगे कि उन्होंने अनुचित ढ़ंग से द्रोणाचार्य, दुर्योधन, भीष्म की हत्या करवाई।
मगर इस सब प्रश्नों, आरोपों को दरकिनार करते हुए कृष्ण ने धर्म की स्थापना का लक्ष्य में रखा। कृष्ण को मालूम था कि अभी सबसे ज़रूरी कार्य है धर्म की स्थापना। यह भीष्म, द्रोणाचार्य, दुर्योधन, शकुनि, दुशासन, कर्ण के रहते हुए संभव नहीं हो सकेगी। इसलिए चाहे उन्हें अनुचित, उचित, मर्यादा की कसौटी पर भविष्य में तौला जाए, अभी जो समय की मांग है, उसके अनुसार क़दम उठाए जाएंगे। क्योंकि तौर, तरीकों से अधिक महत्वपूर्ण है धर्म की स्थापना।
फिर कृष्ण इस बात को भी भली भांति जानते थे कि यह दुनिया, इसके लोग आरोप लगाने, प्रश्न खड़े करने में माहिर हैं। इसलिए इनकी परवाह करते हुए अपने लक्ष्य को छोड़ देना, अपना प्रयासों को स्थगित करना बेवकूफी होगी। कृष्ण जानते थे कि राम पर आरोप लगाए जाएंगे, कृष्ण जानते थे कि ईसा मसीह, बुद्ध पर पत्थर फेंके जाएंगे। इसलिए दुनिया की नैतिकता, मर्यादा की कसौटी पर आंके जाने की परवाह किसी काम की नहीं।
कृष्ण पर कई लोग आरोप लगाने से नहीं चूकते कि उन्होंने धर्म युद्ध कराया या वे युद्ध समर्थक थे। कृष्ण का क्या स्वार्थ हो सकता है धर्म युद्ध में। कृष्ण तो स्वयं शांति दूत बनकर पांडवों के लिए पांच गांव मांगने गए। धर्म युद्ध ही करवाना होता तो पांच गांव मांगने की जगह पांडवों की सेना के साथ जाते कृष्ण। कृष्ण ही थे जिन्होंने पहला विकल्प दुर्योधन को दिया था कि वह उनमें और उनकी सेना में से किसी एक को चुन ले। कृष्ण ही थे जिन्होंने शिशुपाल की गालियों को माफ़ किया। यानी कृष्ण कट्टर नहीं उदार थे। कृष्ण मौक़े देने में यक़ीन रखते थे। मगर कोई बिलकुल अधर्मी होकर दैत्य स्वरूप धारण कर ले तो उसका संहार ज़रूरी होता है। विश्व शांति के लिए, धर्म की स्थापना के लिए, जो भी विधर्मी रोड़ा बने, उसका अंत नीति सम्मत होता है।
कृष्ण के और भी कई रंग हैं। जब तक द्रौपदी अपनी साड़ी का पल्लू पकड़ कर रहती हैं, कृष्ण उनकी सहायता को नहीं आते। इसलिए कि साड़ी का पल्लू पकड़े रहना इस बात का सूचक है कि द्रौपदी को यह उम्मीद है कि वह अपनी रक्षा कर लेंगी। लेकिन जब द्रौपदी ने समर्पण कर अपनी साड़ी का पल्लू छोड़ दिया तब वह पूर्ण रूप से कृष्ण की शरण में अा गईं। अब उनकी लाज कृष्ण के हाथ थी। तब कृष्ण ने द्रौपदी की मदद की।
सभी मोह ख़त्म हो चुके थे।जीने की चाह नहीं थी। आगे कोई राह नहीं थी। उस वक़्त में में कृष्ण का संदेश जो उन्होंने रणभूमि कुरुक्षेत्र में अर्जुन को दिया था। मुझे जो ऊर्जा, जो ताक़त, जो हिम्मत, जो दिशा कृष्ण के मुख से ऊपजी ” गीता ” सुनकर मिलती है, वह अन्य कहीं से भी नहीं मिलती। मेरा अनुभव है कि दुनिया के तमाम धर्मों में लिखी सकारात्मक बातें, विचार गीता से ही निकले हैं।
यहां भी यह बात देखने लायक है कि उन्होंने गीता ज्ञान के लिए जिज्ञासु अर्जुन को ही चुना। कृष्ण जानते थे कि अर्जुन जिज्ञासु हैं। उनके पास प्रश्न हैं। उनके भीतर जानने की तड़प, ललक, इच्छा है। कृष्ण हमें सिखाते हैं कि ज्ञान का प्रकाश उसी तक पहुंचाएं, जिन्हें ज्ञान की प्यास हो। जिनके पेट भरे हैं, होंठ तृप्त हैं, उनके सामने ज्ञान का उद्घाटन व्यर्थ साबित होगा।
मैंने कई बार कहा है, आज भी कह रही हूँ कि मुक्ति, ईश्वर, शक्ति कर्म काण्ड, तीर्थाटन में नहीं है। वे लोग जो आडंबर, रीति रिवाज में उलझे हैं, वे उलझे रह जाएंगे। जब तक प्रेम, करुणा, वात्सल्य आपके भीतर नहीं प्रकट होगा। जब तक आप किसी धर्म, ज़ात से नफ़रत करते रहेंगे। जब तक किसी व्यक्ति की कामयाबी, आपके भीतर ईर्ष्या पैदा करती रहेगी, आप धर्म, आध्यात्म, मुक्ति, ईश्वर से दूर रहेंगे।
आप अपने लक्ष्य को पहचानें। उसकी पूर्ति के लिए कार्य करें। एकनिष्ठ होकर कार्य करें। किसी भी सज्जन, साधु, प्रेमी, धार्मिक मनुष्य का अहित न करें। दैत्य, राक्षस प्रवृति के मनुष्य के लिए समझौते का भाव न रखें।
आप सभी अपने भीतर के कृष्ण को जागृत करें। जिससे वह आपके भीतर धर्म की स्थापना कर सकें।
आप सभी को कृष्ण जन्माष्टमी की हार्दिक शुभकामनाएं ♥️
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Saurabh Chandra Dwivedi
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