By :- pooja agnihotri
सर्वविदित है कि, पश्चिम के तौर तरीके हमारे जीवन को हमेशा से प्रभावित करते आये हैं। हमारे जीवन, खासकर सामाजिक जीवन पर इसका प्रभाव स्पष्ट रूप से देखने को मिलता है।
‘लिव इन रिलेशन’ की धारणा भी पाश्चात्य संस्कृति के अंधानुकरण का प्रतिफल है। आजकल शहरी आँगन में
‘लिव इन रिलेशन’ की अवधारणा तेजी से अपने पाँव पसार रही है। पहले ऐसे संबंधों पर लोग खुलकर बात नहीं करते थे। परन्तु आज लोग न सिर्फ खुलकर लिव इन रिलेशन शिप में रहते हैं अपितु इस बात को खुलेआम स्वीकार भी करते हैं।
कहते हैं हर धारणा के दो पक्ष होते हैं एक काला, एक सफेद, अर्थात प्रत्येक चीज के जहाँ कुछ फायदे होते हैं, तो कुछ नुकसान भी होते हैं। लिव इन रिलेशनशिप भी इसका अपवाद नही है।
इसके उजले पक्ष की चर्चा करें तो पहला जो भाव मन में आता है वो है ‘आजादी’। इस तरह की रिश्ते में आजादी तो होती है, पर कहीं न कहीं दोनो पार्टनर में बेवफाई का डर बना रहता है। दोनों में से किसी एक के बहकने का, साथ ही कमिट्मेंट तोड़ने और कहीं आपका साथी आपको छोड़ न दे इस तरह का डर मन में हमेशा बना रहता है। इसी भय के चलते तनाव की स्थितियां भी उत्पन्न हो जाती है। एक दूसरे के कार्य प्रणाली को ना समझ पाने के कारण भी दिक्कतें आने लगती हैं। ‘लिव इन रिलेशन’ में परिवारिक का वो सम्मान या प्रेम नही मिल पाता जो पति या पत्नी को सहज ही मिल जाता है बिना प्रयास के। इसमें दो लोग शुरूआत में प्यार और भावनात्मक रूप से तो जुड़ते है लेकिन धीरे-धीरे उसमें कमी आने लगती है जिससे ऊब महसूस होने लगती है।
हालाँकि ‘लिव-इन रिलेशनशिप’ में रहने वाले युग्मों में धोखा, बेवफाई और व्यभिचार की आशंका कम होती है। इस रिश्ते में रहते-रहते विवाह के बंधन में भी बंधा जा सकता है। दोनों साथी अपनी जिम्मेदारियां बिना किसी दबाव के निभाते हैं।इस संबंध में समाज और कानून दोनों का दखल भी है। यह रिश्ता अधिक बोझिल नहीं होता। ऐसे में दोनों साथी पूरी तरह से निजी रूप से आजाद होते हैं।
हाल में ही उच्चतम न्यायालय ने ‘ लिव इन रिलेशन ‘ को स्वीकृति दे दी है। अब दो वयस्क अपनी मर्ज़ी से लिव इन में रह रहे हैं, तो यह कोई अपराध नहीं है। ‘लिव इन’ की धारणा के अनुयायियों के लिये ये अच्छी खबर है, किंतु हमारे भारतीय समाज में कभी भी ऐसे संबंधों को सम्मान की दृष्टि से नही देखा जा सकेगा। आज भी गाँव या कस्बा में रहने वाला व्यक्ति इस तरह किसी के साथ रहने की जुर्रत नही कर सकता है।
‘लिव इन रिलेशन’ को मान्यता स़िर्फ बड़े शहरों में ही मिली है। छोटे शहरों या गांवों में यह अवधारणा स्वीकृत नहीं है। यदि कोई ऐसे रिश्ते में रह भी रहा है, तो इसे स्वीकार करने की हिम्मत नहीं रखता, किसी न किसी रिश्ते के आवरण को ओढ़कर रखता है। इन सबके बावजूद ये युवाओं के बीच ख़ासा लोकप्रिय भी हो रहा है।
इस अवधारणा के अंतर्गत पुरुष घर का मुखिया नहीं होता, बल्कि दोनों की अहमियत बराबर होती है। पति-पत्नी के पारंपरिक रिश्ते से इतर हर काम मिल-बांटकर करते हैं, एक अच्छे दोस्त की तरह दोनों एक-दूसरे को भावनात्मक सहयोग देने के साथ ही, हर बात शेयर करते हैं।
हम जब भी लिव इन की बात करते हैं तो सबसे पहले दिमाग़ में प्रीमैरिटल सेक्स की ही बात आती है। जबकि ये सच नही है। रिश्ता इससे कहीं बढ़कर है। यह ज़िम्मेदारी, साथ और शादी के पहले एक-दूसरे को समझने का मिला हुआ मौक़ा होता है, जिससे शादी की मुश्किलें कम हो जाएं। स़िर्फ शारीरिक ज़रूरतों को पूरा करने के लिए साथ रहना उचित नहीं है। इसके साथ की ज़िम्मेदारियों को भी स्वीकार करने की हिम्मत भी रखना चाहिये।
‘लिव इन रिलेशन’ में रहने वाले लोग यदि कुछ सावधानियाँ और जानकारी रखें तो मुश्किलों और इसके नकारात्मक प्रभावों से बचा जा सकता है।
जैसे अपने सभी अधिकारों के बारे में पता होना चाहिए। कोई एक साथी, दूसरे की मज़बूरी या भावनाओं के साथ खिलवाड़ करता है तो उसमें उसे रोकने की क्षमता होनी चाहिए।
युवावर्ग में ‘लिव इन रिलेशन ‘ धारणा के लोकप्रिय होने की एक वजह सिनेमा भी है। कई फिल्मों में ऐसे रिश्तों को दिखाया गया है। ऐसे में अधिकांश युवक युवती अपने आप को नायक या नायिका के स्थान रख कर देखते हैं। जिससे ऐसे रिश्ते में पड़ जाते हैं, मगर उन्हें इससे जुड़ी ज़िम्मेदारियों का एहसास नहीं होता और न ही अहमियत होती है।
कुणाल खेमू- सोहा अली ख़ान, सुशांत सिंह राजपूत- अंकिता लोखंडे, सैफ़ अली ख़ान- करीना कपूर, आमिर ख़ान- किरण राव, जॉन अब्राहम- बिपाशा बासु, रणवीर शौरी- कोंकणा सेन शर्मा कुछ ऐसे उदाहरण हैं, जो लिव इन में रहे हैं। सामाजिक एवं आर्थिक स्तर इतना ऊँचा होने के बाद भी कुछ ने शादी की कुछ ने नही की। हम स्पष्ट देख सकते हैं इनमे से जिन्होंने शादी नही की उनके पुरुष साथी को तो मनचाहा जीवनसाथी मिला, पर कहीं न कहीं महिला को समझौता ही करना पड़ा।
यह भी सत्य है कि, यदि युवती लिव इन में रहती है तो वह पत्नी के रूप में ढल आसानी से जाती है। भारतीय स्त्री के लिए संबंधों को तोड़ पाना अभी भी मुश्किल है। न सिर्फ सामाजिक अपितु भावनात्मक स्तर पर भी। ‘लिव इन रिलेशन’ की धारणा लड़कियों के लिये एक आग का दरिया है। क्योंकि ऐसे संबंधों में सबसे अधिक मानसिक पीड़ा और सामाजिक प्रताड़ना यदि किसी को सहन करनी पड़ती है, तो वह है स्त्री। समाज में पुरुषों को जल्दी माफ कर दिया जाता है। हालाँकि पुरुष भी प्रताड़ित होते हैं, पर प्रतिशत कम है।
लिव इन में रहने से पहले भावी परिस्थितियों पर भली भाँति विचार कर लेना चाहिये।
हमारे समाज की संरचना ही कुछ ऐसी है कि, जिसे न चाहते हुये भी पुरुष प्रधान ही कहना होगा।
कुछ समय लिव इन में रहने के बाद यदि साथी से पटरी सामंजस्य नही बना तो दोनों अलग तो हो जाते हैं। मगर इस अलगाव से महिलाएँ अधिक प्रभावित होती हैं। पुरुष या तो किसी अन्य महिला के साथ फिर से ‘लिव इन’ में रहने लगता है या फिर शादी कर लेता है। मगर ऐसी महिलाओं को समाज सहज स्वीकार नहीं करता। उनके चरित्र पर उंगलियां उठने लगती हैं, बदचलन करार दिया जाता है। जबकि पुरुषों से कोई सवाल नहीं पूछे जाते। भारतीय सामाजिक एवं सांस्कृतिक परिवेश के ताने-बाने में विवाह संस्था की अनिवार्यता आज भी यथावत है। स्त्रियों को क़दम-क़दम पर अग्नि-परीक्षा देनी पड़ती है। वो साथी के साथ ‘लिव इन’ में रहते हुए भी यह खुल कर स्वीकार नहीं कर पातीं, कि यह मेरा लिव इन पार्टनर है। अपने साथी के दफ़्तर के लोग ‘भाभीजी’ संबोधित करते हैं तो वो एक तृप्ति का अनुभव करती हैं। जबकि उन्हें आपत्ति जताते हुये यह कहना चाहिये कि मैं इसकी विवाहिता नहीं, इसके साथ स़िर्फ रिलेशन में रह रही हूँ। यहाँ तक कि करवा चौथ का व्रत भी रखती हैं, एक विवाहिता की ही तरह। इन सबके बाद भी अलगाव होने पर पुरुष साथी को तो विधिवत पत्नी मिल जाती है, किंतु महिलाओं को मिलता का ‘रखैल’ के नाम का ठप्पा।
पुरुष के लिये भी उतना आसान न है, जितना दिखता है। क्योंकि यदि दोनों में मतभेद होते हैं तो ‘भारतीय दण्ड विधान ‘ में जो भी धारा स्तेमाल होती हैं, सब की सब पुरुष के खिलाफ होती हैं, और महिलाओं को महिला सुरक्षा, यौन उत्पीड़न, वोमेन वेलफेयर, एनजीओ आदि कई संस्थानों से सहायता प्राप्त होती है, जबकि पुरुष को अपनी लड़ाई अकेले ही लड़नी होती है।
लिव इन में रहने का फैसला किसी का भी बेहद निजी निर्णय है। कोई महिला लिव इन में रहने का फैसला करती है, तो आगे के हालात का सामना करने के लिए ख़ुद को मजबूती से तैयार रखना चाहिए।
भले ही हम ख़ुद को कितना भी आधुनिक मान लें, दिखा लें। मगर ये सच है कि, ऐसे रिश्तों को हमारा समाज आज भी हजम नहीं कर पा रहा है। कानूनी मान्यता मिलने के बाद भी ‘लिव इन’ की अवधारणा को पश्चिमी देशों जैसी सामाजिक स्वीकृति मिलना ठीक वैसा ही मुश्किल है, जैसे “बिल्ली के गले में घण्टी बांधना” ।
हालाँकि व्यक्तिगत रूप से मैं इस कॉन्सेप्ट से सहमत नहीं हूँ। किसी के साथ कुछ दिन रहने के बाद यदि सही जीवनसाथी की तलाश करना संभव होता, तो प्रेम विवाह कभी असफल नही होते। प्रेम विवाह में एक-दूसरे को सालों तक जानने के बाद भी विवाह की परिणति कई बार तलाक़ के रूप में होती है।
‘लिव इन’ को लेकर बड़े शहरों में स्थिति बेहतर है. इसकी वजह ये है कि लोगों के पास एक-दूसरे की ज़िंदगी में झांकने का समय नहीं है। छोटे शहरों में अब भी लोग ऐसे रिश्तों को हिकारत की नजर से ही देखते हैं। किंतु धीरे-धीरे ही सही, अब स्त्रियों के अलग अस्तित्व को मान्यता मिलने लगी है। ‘लिव इन रिलेशन’ इसी प्रक्रिया का एक हिस्सा है। जैसे-जैसे हमारा समाज विकसित होगा, इस तरह के कई क्रांतिकारी अधिकारों को मान्यता देनी पड़ेगी। कहा जाता है कि, क़ानूनी मान्यता सामाजिक मान्यता पाने का पहला क़दम है। हालांकि इसमें मुश्किलें भी हैं।
धारा 377 (समलैंगिकता) एवं सहजीवन (लिव इन रिलेशन) इसके ताजा उदाहरण है। जो कानूनी मान्यता मिलने के बाद समाज के एक बहुत छोटे से तबके में ही सही, जगह बनाने में कामयाब हुये हैं।
© पूजा अग्निहोत्री