एक कल्पना समरसता कायम करने की
सबसे पहले समरसता परिवार मे कायम करनी होगी। आसपडोस मे कायम करनी होगी तब जाकर हिन्दू मुसलमान मे समरसता कायम होने के आसार उत्पन्न होगें.
जीवन और यात्रा की समरसता मे सामंजस्य बिठाते हुए सडक पर चल रहा था। अचानक से मनगर्भ से एक कल्पना का जन्म हुआ। सामाजिक समरसता कायम करने की कल्पना। हमारे देश मे आजादी के समय से ही समरसता कायम करने की बात हो रही है। ये समरसता आखिर किसके लिये है ? इस सवाल का जवाब सिर्फ इतना सा है कि हिन्दू और मुसलमान मे समरसता कायम हो जाए। हिन्दू और मुसलमान सद्भाव से रहने लगें। देश की एकता अखंडता की धुरी भी हिन्दू और मुसलमान मे टिकी हुई है।
संस्कृति व धर्म के अनुसार दोनो धर्म के क्रियाकलाप अनलोम विलोम है।
लेकिन इससे पहले हमे समरसता पर चिंतन करना होगा कि आखिर समरसता क्या है ? इसका बड़ा ही सहज सरल जवाब है कि “समान रस बहता हो”। आपस मे एक समान रस हो। मतलब सीधा सा है कि हमारे भाव ऐसे हो कि उनके रस से आपस मे रसमय हो जाएं। स्नेह प्रेम इतना हो जाए कि एक दूसरे को पाकर भाव विभोर हो जाए। जैसे घर मे अतिप्रिय अतिथि को देखकर हृदय पुलकित हो उठता है।
क्या सामान्य तौर पर भारतीय परिवार मे ऐसी समरसता पायी जाती है? क्या आस पड़ोस मे समरसता पायी जाती है ? इसका उत्तर सतप्रतिशत हाँ मे नही मिलेगा। क्यूंकि यह सत्य है कि एक ही परिवार मे पिता पुत्र लड रहे हैं, भाई बहन लड रहे हैं, बहन और बहन की आपस मे जंग छिडी हुई है। पति पत्नी मे वो नेमप्रेम नही है। बगल वाले घर से इस कदर ईर्ष्या व द्वेष की लड़ाई है कि जैसे भारत और पाकिस्तान की सीमा खिच गई हो।
जब भारत के एक ही धर्म और समुदाय मे ऐसे हालात हैं कि हिन्दू हो या मुसलमान चारदीवारी के अंदर समरसता कायम नही है तो आखिर कैसी उम्मीद की जा सकती है कि दो धर्मों मे गंगा जमुना की समरसता कायम हो जायेगी और कोई सरस्वती के मिलान से संगम हो जायेगा ?
अगर इस समाज को प्रयाग का संगम बनाना है तो सबसे पहले स्वयं से ही परिवर्तन की शुरूआत करनी होगी। प्रत्येक घर परिवार मे खुशहाली होनी चाहिए। परिवार मे ऐसा आपसी भाईचारा होना चाहिए कि वास्तव मे भाव से समान रस उमड पडे।
अर्बन संस्कृति ऐसी हो चुकी है कि बगल मे कौन रह रहा है। जीवन की आपाधापी और संकीर्ण सोच की वजह से यही नही पता कि बगल वाले का नाम क्या है ? गांव मे लम्बरदारी और हनक की प्रतिस्पर्धा इस कदर हो गई कि वहाँ ईद की तरह ही लोग गले मिलते हैं। एक दिन गले मिलने से और कहीं चर्चा कर लेने भर से समरसता नही जन्म लेती है।
शांति और समरसता के लिये शुरूआत स्वयं से ही करनी होगी। हिन्दुओं मे समरसता आ जाये। मुसलमानों मे समरसता आ जाये। मुस्लिम मुल्ला मौलवी वक्त के अनुसार महिलाओं को न्याय देना सीख जायें। शिक्षा के प्रति जागरूक हो। जनसंख्या की उपयोगिता और आवश्यकता पर जागरूकता आ जाये। दोनो तरफ स्वयं मे सुधार हो जाये। समृद्धि आ जाये।
प्रेम मे बंदिशे न हो। क्यूंकि समरसता प्रेम से ही उत्पन्न होती है। ये समाज गवाह है कि कितनी बार प्रेम का गला घोटा गया है। प्रेम को अनैतिक कह देते हैं। आपके ऐसा कहने और करने मात्र से प्रेम का विकृत रूप समाज मे सामने आ रहा है। मन और आत्मा से लोग प्रेम नही कर पा रहे हैं। आपकी बंदिशो और फब्तियों की वजह से प्रेम भी छुप छुप कर जीने को मजबूर हो गया है। ये दुनिया आज भी टिकी है तो छुप छुप कर किये जाने वाले प्रेम की वजह से !
आप प्रेम के ही दुश्मन हो गये हैं। जाति धर्म और मजहब की कट्टरता मे इस कदर बेवफा हो गये हैं कि अपने ही अंतस से बेवफाई कर जाते हैं। आखिर एक लडका और लडकी प्रेम नही कर सकते तो क्या कर सकते हैं ? प्रेम की परिभाषा अगर बिगडी है, उसका स्वरूप अविश्वास के घेरे मे आया है तो यह देन इस समाज की है।
युवाओं मे धैर्य की कमी हो रही है तो इसके लिये जिम्मेदार बडे बुजुर्ग हैं। जिस समाज मे धैर्य और प्रेम की कमी होगी। उस समाज मे समरसता कभी कायम नही होगी। जिस समाज मे सुपात्र व्यक्ति मार्गदर्शन नही करेगें उस समाज मे कुत्सित विचार कुपात्रों के द्वारा फैलाये जायेगें। हाल ही मे दिल्ली युनिवर्सिटी का पूरा मामला अभिव्यक्ति की आजादी और समरसता की संस्कृति पर ही टिका हुआ है। एक ऐसे व्यक्ति से आप संस्कृति पर भाषण दिलवाना चाह रहे हैं। जो पहले से ही देश विरोधी नारे लगाने का आरोपी है। ये उसी प्रकार से हो गया कि सनी लियोन से कहा जाए कि आप सत्संग करिये ?
चिंतन और मनन करिये कि आखिर हमे कैसी आजादी चाहिये ? ये वही भारतीय संस्कृति है। जहाँ बेटियों को देवी और नारियों को पूज्यनीय बताया गया है। खैर ये बातें गैगुजरे जमाने की हो गई हैं। लेकिन सनद रहे कि शांति कायम करने के लिये शांति और सामंजस्य की चर्चा करनी होती है ना कि संगठन विशेष व समुदाय विशेष के विरूद्ध नारेबाजी और मुद्दे विशेष पर राजनीति की जाती है।
इस देश की वह कहावत प्रचलित हो रही है कि जिसकी लाठी उसी की भैंस। आधुनिक जमाने मे लाठी का स्वरूप बदल चुका है। वो लाठी कलम, इलेक्ट्रानिक मीडिया, प्रिंट मीडिया और विभिन्न सामाजिक संगठन सहित राजनीतिक पार्टियां सबके पास अपने अपने तरीके की लाठी है। सब उस लाठी से भैंस अपनी कर लेना चाहते हैं। समरसता तो बहाना है। अभिव्यक्ति की आजादी बहाना है। बल्कि स्वअस्तित्व की जंग मे देश के अस्तित्व की जंग कहीं पीछे छूटती नजर आ रही है।
देश के युवाओं को चिंतन करना होगा। पठन पाठन पर ध्यान आकृष्ट करना होगा। भारत की सुख समृद्धि के लिए जन जागरूकता की सबसे बडी आवश्यकता है। यहाँ की आधे से ज्यादा महिला पुरूष की आबादी भ्रमित और भटकी हुई प्रतीत होती है। इसके महज अनगिनत कारण है। देश मे शिक्षा, रोजगार और समृद्धि की कमी है। हम सबको मिलकर राष्ट्र हित के लिए योगदान देना होगा।
किंतु समरसता कायम करने मे आर्थिक जरूरत नही है बल्कि सोच बदलने की जरूरत है। वक्त के सांचे मे ढलने की जरूरत है। परिवार मे ही समरसता लाने की आवश्यकता है। इसलिये आसपड़ोस मे समय दीजिये कि समरसता आ जाये फिर हिन्दू और मुसलमान मे समरसता आ जायेगी। इसके पहले तो कोई समरसता नही आयेगी बल्कि सिर्फ और सिर्फ राजनैतिक रोटियां सेकीं जायेगी, छीनी जायेगी। मोहरा कोई भी बन सकता है, बेटा और बेटी कोई भी बन सकता है। भरे पेट वाले भूखे पेट वालो का यूं ही उपयोग करते रहेगें। उनकी ऊर्जा का क्षरण करते रहेगें। सचमुच इस देश मे एक व्यापक बदलाव की आवश्यकता है किंतु इस बदलाव के लिए तैयार कौन है ? नेतृत्व कौन करेगा और नेतृत्व स्वीकार कौन करेगा। वो धैर्य कहां से आयेगा कि हिमालय की चट्टान की तरह देश सेवा के लिए खडे रहें।
सौरभ द्विवेदी