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By – saurabh Dwivedi (8948785050)

मनुष्य का मन ही 


मनुष्य है 




जब हम मन से 



चाहने लगते हैं 

महसूस करने लगते हैं 


देह को भेदकर 

मन को प्राप्त करने हेतु 

उडान भरने लगते हैं 
देह के पार 

प्रवेश करके 

मन ही मन में 

आत्मा रूपी 

जलज भावनाओं में 

डुबकी लगाने लगते हैं 

तैरने लगते हैं 
अपनत्व का सागर 

स्वयं ही बना लेते हैं 

महसूस करने लगते हैं 

उसकी गहराई में 

उतरकर महसूस करते हैं 
वास्तव में 

प्रेम वही होता है 

प्रेम अपनी कल्पना के 

साकार रूप में

रग रग में 

ढलने लगता है 

नश नश में 

बहने लगता है 
प्रेम की इसी गहराई में 

जीवन है 

आत्मा का प्रेम 

यही है 

ऐसा ही है 

जो देह के ट्रैक से 

आसमानी आत्मा में 

विचरण करता है

अद्भुत सी सुगंध 

महकती हुई 

महसूस होती है

तुम्हारा “सखा”


एक अद्भुत से एहसास में, एक ऐसी कल्पना जो स्वयं ही मन में जीवंत हुई। उसे अनेक नाम भी दिए।

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