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By – Saurabh Dwivedi

क्या कभी प्रेम से भय लग सकता है ? प्रेम दृश्य देखने – सुनने और महसूस करने में भय ! ऐसा लगे कि मानों बस बहुत हो गया अब और ना देखा जाएगा , ना सहा जाएगा। ऐसी गंभीर स्थिति का निर्माण कब और कैसे हो सकता है ? परंतु ऐसा हो सकता है और होता है।

जब एक इंसान प्रेम से दूर भागने लगता है। वो राधा – कृष्ण जैसे अलौकिक प्रेम दृश्य को देखकर भी दूर भागने लगता है। उसका जी करता है कि नहीं महसूस करना प्रेम को !

जबकि जीवन में प्रेम सभी चाहते हैं। प्रेम ही वो ऊर्जा है जो जीवन को उत्साह के ईधन से भरकर रखती है। प्रेम बचपन में अलग स्वरूप में होता है , प्रेम करने वाले देने वाले तमाम परिजन होते हैं। वे बच्चों के साथ बच्चे बन जाते हैं। हाँ प्रेम वही है , जिसमें ममत्व और बचपना हो।

एक अंतर्विरोध लगातार चला आ रहा है। लड़का और लड़की के प्रेम पर , पुरूष और स्त्री के प्रेम पर। साथ ही विवाह उपरांत प्रेम का महसूस हो जाने का विरोध। यह समस्त विरोध मर्यादा की शील भंग की दहलीज में जन्म लेता है।

जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है। हार्मोंस विकसित होते हैं। वैज्ञानिक एवं आध्यात्मिक कारक जन्म लेते हैं। देह वैज्ञानिक है। चूंकि देह स्पष्ट नजर आती है। देह पर प्रयोग होते हैं और किए जा सकते हैं। यहाँ तक की दैहिक क्रिया व मांग स्पष्ट दिखती है। इसलिये आकर्षण सर्वप्रथम नजर आता है। विपरीत लिंग के प्रेम को आकर्षण से जोड़ दिया जाता है। बेशक आकर्षण का भी अपना मूल स्थान है।

यदि आकर्षण नहीं होगा तो प्रेम भी नहीं होगा। आकर्षण मूलतः ऐसे ही है कि गुलाब का पौधा दिखता है और मन करता है कि इसे ले लिया जाए। क्या सिर्फ पौधा ले रहे हैं ? नहीं ! कोई सिर्फ बीज या पौधा नहीं लेता।

उन बीज और पौधे में छिपे आकर्षण के अंतस में पुष्प खिलने की उम्मीद जन्मी होती है। एक गुलाब का पौधा लिया और उत्तम प्रक्रिया से रोपित कर सम्पूर्ण सेवाभाव से तब तक प्रयास जारी रहता है जब तक वो पौधा स्वयं ही जमीं से पोषक तत्व पाने योग्य ना हो जाए।

एक समय ऐसा आता है कि पौधा स्वयं जमीं से पोषक तत्व का पान करने लगता है। रोपित करने वाला व्यक्ति निश्चिंत होकर पुष्प खिलने की उम्मीद से संसार में विचरण करने लगता है।

एक दिन उस पौधे पर पुष्प खिलने लगते हैं। ये मन का भाव है , आत्मा के अहसास हैं जो आध्यात्मिक हैं। पौधे का दिखना देह है जोकि वैज्ञानिक है एवं उस पर पुष्प का खिलना मानसिक सेवाभाव , स्नेह है। अगर मन और आत्मा से जुड़ाव नहीं होगा तो क्यों सेवा की जाएगी ? उसके पीछे जन्मना उम्मीद है।

किन्तु हमारे ही संसार में पूरब और पश्चिम को लेकर विवाद व्याप्त है। ये श्रेष्ठता का विवाद है। पश्चिम से पूरब श्रेष्ठ है , असल में दिशाएं सभी बराबर हैं और सभी का महत्व है। किन्तु मनुष्य की अपनी बनाई हुई संस्कृति की बात है। पूरब की संस्कृति और पश्चिम की संस्कृति ! पूरब वाले कहते हैं कि पश्चिम की संस्कृति फूहड़पन है। यह फूहड़पन की बात भी सिर्फ इसलिए है कि वहाँ प्रेम खुले में जिया जा सकता है , पर्दे में जियो या खुले में आपकी समझ , आपकी स्वतंत्रता और सहजता की बात है।

पूरब की अपनी मान्यताएं हैं। ये सिर्फ मान्यताएं नहीं बल्कि थोपी भी जाती हैं। यह बेड़ियों की तरह जकड़ी भी जाती हैं। बेशक बेड़ियां एक दिन तोड़ी जाती हैं। पर यह उस प्रकार है कि बचपन से हाथी को बेड़ियों में बांध दिया जाता है और वो विशालकाय हाथी मृत्यु तक बेड़ियों जकड़ा हुए जी लेता है। चूंकि उसे विश्वास हो जाता है कि ये बेड़ियां इतनी मजबूत हैं कि इन्हें तोड़ा नहीं जा सकता।

जिंदगी को सहजता से जीने हेतु जितनी मर्यादा व पर्दे की आवश्यकता है उतना ही प्रेम की आवश्यकता है। प्रेम जो एक ऊर्जा है और बिन ईधन के मशीन भी नहीं चलती है फिर इंसान कैसे चल सकेगा और कितना चलेगा ? स्वतः दम तोड़ देगा !

अतः प्रेम में भेद कैसा ? कि पश्चिम संस्कृति का हफ्ता है ? प्रेम चारों दिशाओं से स्वीकार्य होना चाहिए। कहीं से भी आए प्रेम आए वैसे ही जैसे नफरत , कुंठा और गुस्से का प्रदर्शन कहीं पर भी कर देते हैं। अश्लील शब्द आप आसानी से कह सकते हैं। किन्तु प्रेम के लिए तमाम सामाजिक अदृश्य सलाखें बनाकर रखे हुए हैं। अब ऐसे में प्रेम कब अंकुरित होगा ? प्रेम कब परिपक्व होगा ? जहाँ प्रेम अंकुरित नहीं हो सकता , प्रेम परिपक्व नहीं हो सकता वहाँ बेशक प्रेम का भ्रम हो सकता है , एक जोड़ा विवाह के बंधन में बंधकर जिंदगी जी सकते हैं और सुखमय दिख सकते हैं व दिखा सकते हैं। किन्तु वास्तव में प्रेम जी नहीं सकते और ना जी पाते हैं। चूंकि प्रेम का जन्म ही नहीं हुआ होता है।

जब मिलन मन और आत्मा से हो जाए फिर कहीं कोई अंधकार नहीं हो सकता। चहुंओर प्रकाश व्याप्त होगा , अंतर्तम् प्रकाशित होगा। यही वो प्रेम है जो आत्मसात किया जाना चाहिए। जिसके लिए जगह रिक्त होनी चाहिए। जहाँ प्रेम होता है वहाँ विषाद और विकार नहीं होते। विषाद – विकार तभी दिखते हैं जब प्रेम विकसित नहीं हो सका। कलह तभी उत्पन्न होता है और खुशियां छिन जाती हैं। ऐसे में स्थिति उत्पन्न होती है कि इस दुनिया में प्रेमिल दृश्यों से भी भय महसूस होने लगता है।

अतः चारों दिशाओं से प्रेम की संस्कृति को आत्मसात करना चाहिए। प्रेम – अपनत्व को महसूस कर लेना और आत्मा से जी लेना जीवन का मर्म है। प्रेम पर सवाल तब नहीं होगा जब प्रेम को बीज की तरह अंकुरित और विकसित होने का समय व स्थान देंगे। तब प्रेम की लहलहाती फसल बसंत में मनोहारी महसूस होगी। अतः शक प्रेम पर नहीं अपनी कुंठा , घृणा पर करिए !

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