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By – Saurabh Dwivedi

पिछले दिनों मान्या कलेक्शन के मालिक Deepak Agrawal जी के साथ समसामयिक विषय पर चर्चा कर रहा था। इनके यहाँ कपड़े का कलेक्शन इतना अच्छा है कि विदेशी भी कपड़े ले जाते हैं। अचानक से एक वोल्वो बस रूकती है और कुछ विदेशी पर्यटक महिला एवं पुरूष नजर आते हैं।

सभी पर्यटक की उम्र लगभग पचास साल या इससे अधिक साफ महसूस हो रही थी। सभी के चेहरे पर खुशियां साफ झलक रही थी। तनाव से रहित चेहरा स्पष्ट देखा जा सकता था। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो सभी जिंदगी का आनंद उठा रहे हैं।

ये विदेशी संस्कृति के लोग हैं , जो बुढ़ापे में प्रवेश कर रहे हैं। कुछ एकाध तो बुढ़ापे में ही थे। लगभग साठ पार उम्र रही होगी। सभी के चेहरे में तनाव ना होकर , बुढ़ापे की चिंता ना होकर जिंदगी का लुत्फ उठाने का अहसास महसूस हो रहा था।

एक हमारा देश है। हमारे देश का बुढ़ापा है। जहाँ वृद्धा पेंशन मिलने ना मिलने की चिंता सताने लगती है। कुछ को विधवा पेंशन की दरकार रहती है। चालीस के पार जिंदगी ढलने लगती है और पचास – साठ तक तो बिन अर्थी के अंतिम यात्रा के लिए तैयार दिखते हैं। चेहरे की झांइयां , झुर्रियां साबित करने लगती हैं कि अब समय हो चला है।

कुछ अपवाद बेशक हो सकते हैं। जहाँ अमीरी का वास होगा। ऐसी समृद्धि होगी कि जिंदगी को लेकर कोई खास चिंता नहीं होगी। कुछ लोग सोच और समझ से इतने समृद्ध हो सकते हैं कि जिंदगी में रचनात्मकता के जरिए स्वयं को समृद्ध किए रहते हैं वरना यह वो देश है , जहाँ के युवा भी मानसिक तनाव से असमय ही बुढ़ापे के शिकार हो जाते हैं। जिंदगी बुझी – बुझी सी हो जाती है।

इसकी वजह भारत में जिंदगी को महत्व ना देना। समाज और सरकार की असंवेदनशीलता भी बड़ी वजह है। जिस देश में स्त्री और पुरुष के एक साथ खड़े होने पर शक की निगाह से देखा जाता हो। प्रेम अपराध हो , दोस्ती के रिश्ते की मान्यता ना हो और हो तो बड़ी ही निजता के साथ सीमित हो।

पिता – पुत्र के रिश्ते में छोटे – बड़े का ऐसा लिहाज हो कि सिर्फ आदेश फरमानी तक रिश्ते की औपचारिकता हो। एक घर के अंदर खूनी रिश्ते मानसिक लगाव ना महसूस कर पाते हों और वैवाहिक रिश्ते भी व्यवस्था के इर्द-गिर्द टिके हों। वहाँ जिंदगी की जद्दोजहद जारी रहती है।

जिंदगी में कहर बरपता रहता है। लोग जीते रहते हैं। मजदूर अपनी मजदूरी से जी रहा हो पर मजदूरी मिलने की चिंता सताए जा रही हो तो सोचिए कि जिंदगी कहाँ जी रहे हैं ? अफसरों की मनमानी ऐसी हो कि नीचे काम करने वाले कर्मचारी तनाव में रहते हों तो जिंदगी कहाँ हैं ? हर वक्त गाज गिरने का डर रहता हो।

थाना हो , बिजली विभाग हो , कृषि विभाग हो मतलब कि विभाग दर विभाग दलाल और दलाली का बोलबाला हो। निर्दोष को सजा हो , दोषी बरी हो। कमजोर आदमी सताया जा रहा हो और मजबूत आदमी भ्रष्टाचार का हिटलर हो तो कहाँ है जिंदगी ?

यही हालात हैं कि असमय बुढ़ापा आता है। असमय मृत्यु होती है। जिंदगी भर जिंदगी को समझ नहीं पाते फिर मोक्ष कैसे मिलेगा ? जब कुरीतियां , अप्रासंगिक हो चुकी प्राचीन व्यवस्था पाप और पुण्य का मुहल्लेबाजी में कानाफूसी कर फैसला करती हो। वहाँ सौंदर्य ढल जाता है। चूंकि मन का कत्ल इतना हो चुका होता है कि जीता हुआ शव चलता है , बोलता है और जीने की कोशिश करता है , जब तक वह अंतिम संस्कार की गति को प्राप्त नहीं हो जाता।

विदेशी धरती और भारत में यह मामूली सा फर्क नहीं है। कोई स्वीकार करे ना करे पर वृद्धा पेंशन सब बयां कर रही है। बेशक संस्कृति , धर्म और व्यवस्था का झंडा बुलंद करने वाले मेरा विरोध कर सकते हैं , पर जिंदगी की हकीकत से मुंह नहीं मोड़ सकते।

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