By :- Amita neerav
…तो पद्मजा पकड़ी गईं। माधवी यह जानकर अवाक रह गई।
ओह… वह धम्म से बैठ गई। चित्त अस्थिर हो गया। उसकी सारी प्रार्थना, शुभेच्छाओं का कुछ नहीं हुआ। अब… अब क्या होगा उसके साथ? इस विचार ने माधवी को विचलित कर दिया। अंततः पद्मजा ने जघन्य अपराध किया है। हत्या जैसा अपराध… तो क्या जयनंदन ने जो किया वो कम बड़ा अपराध था। पद्मजा ने तो महज हत्या ही की, जयनंदन ने तो न जाने कितनी स्त्रियों का अपमान किया और चित्रा…. कितनी छोटी बच्ची… तो क्या उसे उसका दंड नहीं मिलना चाहिए था? पद्मजा ने उसे दंड ही तो दिया था, यह तो न्याय था। न्याय के बदले दंड तो न्याय ही है न!
माधवी उलझने लगी थी… न्याय क्या है? क्या सत्ता जो कहे वो न्याय है? हाँ कदाचित वही न्याय है, नहीं तो अपराध तो चित्रा की मृत्यु थी और अपराधी जयनंदन…. तो फिर पद्मजा को दंड…। किंतु अब माधवी के अधिकार में विचार के अतिरिक्त और कुछ भी शेष नहीं था। अधिक-से-अधिक वह पद्मजा से जाकर कारागार में भेंट कर सकती थी। इसके अतिरिक्त और वह कुछ भी नहीं कर सकती थी। वह भी अयोध्या राजवंश से विद्रोह करके। अंततः जयनंदन तो राजमाता शाम्भवी की बहन का पुत्र था।
‘मणिका… पद्मजा से भेंट हो पाएगी?’
‘भेंट…. आप कैसा प्रश्न कर रही हैं देवि?’– मणिका ने अचरज से उसकी ओर देखा।
‘क्यों? इसमें क्या अनुचित है!’– माधवी ने उसे देखा।
‘देवि, रानी पद्मजा ने हत्या की है… अपराध किया है।’
‘हत्या की है, अपराध कैसे किया है मणिका?’– माधवी ने प्रश्न किया।
‘तो क्या हत्या अपराध नहीं होता?’– मणिका ने प्रतिप्रश्न किया।
‘मृत्युदंड को क्या कहोगी मणिका…. हत्या या न्याय?’– माधवी ने प्रश्न के उत्तर में प्रश्न किया। मणिका उलझ गई…. ‘वो तो न्याय हुआ न…?’
‘किसकी दृष्टि में….??’– माधवी ने प्रश्न किया।
मणिका इस प्रश्न से हड़बड़ा गई। ‘देवि अपराध किया है तो न्याय के रूप में दंड दिया जाता है। इसमें दृष्टि कहाँ से आई?’
‘होता है मणिका…. यदि कोई तुम्हारे बेटे की हत्या करने का प्रयास कर रहा हो और तुमसे उसकी हत्या हो जाए तो तुम और तुम्हारा परिवार उसे क्या कहेगा? न्याय या अपराध….?’– माधवी ने प्रश्न किया। मणिका विचार करने लगी।
‘मणिका कुछ भी निरपेक्ष नहीं होता है। जिनके हाथों में शक्ति होती है, वे सामाजिक मूल्यों का निर्धारण करते हैं और हम उन्हें बिना किसी संदेह-प्रश्न के मान लेते हैं। मृत्युदंड को न्याय कहेंगे…. पद्मजा ने जो किया उसे हत्या….?’ – माधवी ने कहा।
‘तो देवि फिर तो इस जगत् में कुछ भी अपराध नहीं है…. ’– मणिका ने प्रतिप्रश्न किया। माधवी ने दूर देखते हुए कहा।
होता है, किंतु रानी पद्मजा ने तो अन्याय का प्रतिकार ही किया है। – माधवी ने कहा।
‘तो देवि जिसे हम न्याय कहते हैं, वो क्या है?!’
‘सत्ता की इच्छा।’– माधवी कहकर झरोखे की तरफ चली गई।
मन बहुत उद्विग्न हो रहा है। वह जानती है कि अब पद्मजा के समक्ष कोई विकल्प शेष नहीं है। दंड अवश्यंभावी है। विचार कर रही है कि क्या उसे महाराज से पद्मजा के संबंध में बात करनी चाहिए और यदि वह कुछ कहेगी तो क्या महाराज उसकी बात को सुनेंगे?
उसे पद्मजा का भावी दिखाई देने लगा है। जिस राजवंश के किसी भी सदस्य की हत्या कर कोई दंड से कैसे बच सकता है? यदि पकड़ी ही न जाती तब बात दूसरी थी। किंतु अब तो वे पकड़ी भी गई है। विकल माधवी ने तय किया जो हो… वह पद्मजा से भेंट करने के लिए कारागर जाएगी। अपना निश्चय उसने जब मणिका को बताया तो उसने एक तरह से उसे चेतावनी दी ‘आप दुस्साहस कर रही हैं देवि….’
.
माधवी ने उसे देखा तो लगा जैसे वह महाराज और अयोध्या राजवंश की प्रतिनिधि की तरह उसे चुनौती दे रही है। ‘भेंट तो होगी… चाहे मुझे भी कारागृह में रहना पड़े।’– माधवी के निश्चय ने मणिका को अचरज में डाल दिया।
( लेखिका दार्शनिक उपन्यासकार हैं)
गहन दार्शनिकता के साथ सुंदर अभिव्यक्ति