SHARE

जब हमारे मित्र सजग, संवेदनशील और जागृत हों तब उनसे होने वाला संवाद चर्चा नहीं मंत्र के जैसा होता है। प्रिय सिद्धार्थ ने अपने प्रश्नों के माध्यम से एक सामान्य वार्तालाप को शिवमय वार्तालाप में रूपांतरित कर दिया..सप्रेम धन्यवाद।

सिद्धार्थ– भैया आपके बाल बहुत अच्छे हैं इनकी ग्रोथ शानदार है। आप बालों में तेल लगाते हैं क्या ?

आशुतोष– जी लगाता हूँ।

सिद्धार्थ– कौन लगाता है ?

आशुतोष– मैं स्वयं।

सिद्धार्थ– कमाल है भैया ! मेरे होते हुए आपको खुद के सिर मैं स्वयं तेल लगाना पड़ रहा है ? आप मुझे आदेश करें।

आशुतोषअपने सिर पर हमें स्वयं ही हाथ फेरना चाहिए प्रिय सिद्धार्थ। हम दूसरों के सिर पर हाथ फेरकर उनको तो आशीर्वाद दे देते हैं किंतु स्वयं को आशीष नहीं देते ! जब हमारा हाथ किसी अन्य के सिर पर फिराने से उसे बल, बुद्धि, विद्या, विवेक से सम्पन्न कर सकता है, उसे यशस्वी और आयुष्मान बना सकता है तब वही हाथ स्वयं के सिर पर फिराने से स्वयं को भी स्वयंभू अर्थात् शंभू बना सकता है बस शर्त ये है कि पूरी शिद्दत से अपने सिर ( शीश, शीर्ष ) को सहलाया जाए।

सिद्धार्थ– शिव ! मतलब भगवान ?

आशुतोष– शिव अर्थात् कल्याणकारी..

सिद्धार्थ– फिर उनको भगवान क्यों कहा जाता है ?

आशुतोषजो संसार के लिए कल्याण की भावना से भरा हुआ हो, कल्याणकारी कार्यों में लगा हुआ हो, संसार के साथ-साथ स्वयं का कल्याण जिसका लक्ष्य हो उसी को लोग भगवान कहने, मानने लगते हैं। इसलिए तो हमारे ऋषि, मुनियों, मनीषियों ने इस सत्य का उद्घाटन किया कि प्रत्येक जीव में परमात्मा का वास होता है। बस आवश्यकता है हमारे अंदर सुप्तावस्था में डले हुए इस कल्याणकारी शिवतत्व को जागृत करने की।

शिव मात्र एक व्यक्ति नहीं हैं, वे एक विचार हैं जो व्यक्ति की परिधि से बाहर निकलकर परम चैतन्य, गुणातीत हो चुके हैं। जो नश्वर जगत के नियमों से बाहर हो, वही ईश्वर होता है उसका कभी क्षरण नहीं होता, वो सदैव वर्तमान रहता है।

सिद्धार्थ– लेकिन शक्ति के बिना तो शिव भी शव हो जाता है। तब तो हमें शिव नहीं अपने अंदर की शक्ति को जागृत करना चाहिए ?

आशुतोष– शक्ति शिव से भिन्न नहीं है अपितु उनका अंग है। शिव के दो रूप माने गए हैं एक जो सर्वव्यापी, अविकारी, अविनाशी, ‘स्थिर परमब्रह्म’ है जिसे हम शिवतत्व कहते हैं और दूसरा जो निरंतर क्रियाशील है जो चर-अचर में प्रकट होता रहता है, उसे शिव का शक्तितत्व कहा जाता है। यही शक्ति अचेतन स्थिर शिव को चेतन करते हुए कार्यान्वित करती है इसलिए शिव को शिवशक्ति भी कहा जाता है, उन्हें सगुण और निर्गुण- निराकार और साकार दोनों रूपों में पूजा जाता है।

आशुतोष– अपने ही हाथों से स्वयं के शीश में अवस्थित आस्था की शक्ति को सक्रिय करके।

सिद्धार्थ– सुप्त अवस्था में मौजूद शिवतत्व कैसे जागृत होगा ?

सिद्धार्थ– आस्था का अर्थ क्या है ?

आशुतोष– ‘अवश्य’ के भाव में स्थित होना ही आस्था है। किसी भी कार्य विचार की पूर्णता के लिए अच्युत विश्वास से भरे रहना कि ‘यह होगा ही।’ संदेह रहित चित्त ही आस्था कहलाता है।

सिद्धार्थ– अच्छा एक बात बताइए, ये शिव को शंभू क्यों कहा जाता है ?

आशुतोष– जो स्वयं ही स्वयं का निर्माण करे उसे स्वयंभू कहा जाता है इसी स्वयंभू को हम शंभू कहते हैं। ईश्वर के जितने भी नाम हैं वे उस परमतत्व में व्याप्त गुणों के सूचक हैं। शिवशंभू स्व-निर्माण के प्रणेता और प्रतिमान हैं। हमारे शव अर्थात् शरीर में स्थित शिवतत्व को जागृत करने के लिए हमें स्वयं ही स्वयं का निर्माण करना होगा। यहाँ निर्माण का अर्थ पद, प्रतिष्ठा, धन, वैभव से नहीं है, ये तो बाई प्रोडक्ट हैं, प्रति-उत्पादन।

सिद्धार्थ– हम्म.. तब निर्माण से आपका तात्पर्य क्या है ?

आशुतोष– शव में स्थित स्वा और स्वा में स्थित शिव तक पहुँचने की यात्रा, इसकी जागृति, इसके लिए किया गया प्रयास जिससे हम शिवोहम या हर-हर महादेव तक पहुँचकर स्वयं से कह सकें-शिवम् भवतु। परमपूज्य गुरुदेव दद्दाजी के श्रीचरणों में दण्डवत प्रणाम।

आशुतोष राना की फेसबुक वाल से

( चित्र – रात्रि में जबलपुर मध्यप्रदेश में मां नर्मदा तट पर हम सभी के हृदय सम्राट परम आदरणीय श्री आशुतोष राना जी )

image_printPrint
5.00 avg. rating (98% score) - 1 vote