By :- Saurabh Dwivedi
महात्मा गांधी के संबंध मे जयंती विशेष दिन पर बहुत कुछ पढ़ने को मिला ! यह अपने आप में दर्शन प्राप्त करने जैसा था। प्रतिक्रिया की बाढ़ आना मानसिक आपदा का शिकार होना है। सोशल मीडिया के जमाने में प्रतिक्रियाओं की बाढ़ से मामूली इंसान मानसिक आपदा का शिकार हो रहा है। सबके अपने – अपने गांधी हैं और गांधी उनके भी हैं जिन्होंने उनके जीवन दर्शन को रत्ती भर नहीं पढ़ा होगा।
कुछ लोग गांधी को पूरा खलनायक सिद्ध किए दे रहे हैं तो कुछ लोग गांधी को एकमात्र नायक बताने की कोशिश में तल्लीन हैं। फर्क इतना सा है कि गांधी के विचारों पर पूर्ण रूपेण नायक बताने वाले भी नहीं चलते और खलनायक कहने वालों से उम्मीद भी नहीं की जा सकती !
समय को समझना और समयानुकूल विचारों को धरातल पर उतारना , साथ ही स्व – व्यक्तित्व में विचारों को ढालना व्यक्तिगत जिम्मेदारी का विषय है। गांधी जिस काल खण्ड में रहे उस समय के व्यक्तियों और अब के व्यक्तियों में बड़ा भारी अंतर है। सिर्फ इतना ही नहीं टेक्नोलॉजी में भी बड़ी प्रगति हुई है। गांधी युग में और आधुनिक युग के अंतर में गांधी कहाँ ठहरते हैं ? मूल विषय यह है , जिस पर विचार होना चाहिए !
जिस समय गांधी ने अहिंसा के सिद्धांत की बात की उस समय भी हिंसा व्याप्त थी। वह काल गुलामी का था और स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए स्वचेतना का जागृत होना भी बड़ा कारण था कि गांधी के पीछे बड़ी भीड़ स्वयं खड़ी होती रही ! गांधी आजादी के ध्येय को प्राप्त करने के लिए स्व – पथ पर चलते रहे। उन पर क्रांतिकारी भगत सिंह को सजा से बचाने और नेता जी सुभाष चन्द्र बोस को कांग्रेस अध्यक्ष पद पर पसंद ना करने का तथ्यात्मक दोष सिद्ध होता है।
जिस समय नेताजी सुभाष चन्द्र बोस की जगह जवाहर लाल नेहरू ने ली , उस समय ही गांधी स्वयं के अहिंसा के सिद्धांत का पालन धर्म दर्शन के अनुसार नहीं कर पाए। गांधी बाद में आए परंतु श्रीमद्भगवत गीता पहले आई। गीता में श्रीकृष्ण ने कहा कि किसी की आत्मा को दुखी कर देना ही हिंसा है। अर्थात अहिंसा बेहद सूक्ष्म भाव है जो परिस्थिति के अनुसार ” अ ” हटते ही हिंसा में तब्दील हो जाती है। हिंसा का मतलब सिर्फ मारना – काटना नहीं होता जबकि मनोभाव को महसूस कर , नैतिकता को समझते हुए भी उल्लंघन कर देना आत्मा को चोट पहुंचाना है। इसलिये व्यापक अर्थ में यह भी हिंसा हुई। अतः बहुत से प्रकरण में गांधी स्वयं असफल सिद्ध होते हैं।
गहन अर्थ में हिंसा यह भी है कि हम लाठी खाते रहें और लाठी का प्रतिरोध ना करें , यह स्वयं के साथ आत्मघाती हिंसा है। महात्मा गांधी ने अंग्रेजों के खिलाफ इस प्रकार की अहिंसा का पालन करवाते हुए स्वयं के साथ हिंसा को अप्रत्यक्ष रूप से सहज स्वीकार्य करा दिया था। गुलामी के समय सामान्य नागरिकों द्वारा यह स्वीकारना भी जायज रहा होगा कि जवाबी कार्रवाई से होगा भी क्या ? जब व्यक्ति गुलाम होता है तब यह विचार नहीं कर पाता कि शारीरिक प्रताड़ना क्यों सहें ? चूंकि गुलाम की जिंदगी कितनी ? किसी भी पल जान से मार दिए जाओगे , इसलिए समयानुकूल परिस्थिति वश आंदोलन का यह स्वरूप भी अपना अस्तित्व रखता था।
किन्तु गांधी की धारा के विपरीत चलने वाले गांधी – समय में भी थे। उन्होंने गांधी के सिद्धांत से परे जाकर आजादी की लड़ाई लड़ने की रूपरेखा बनाई। इतिहास के तमाम तथ्य को मानें तो आजादी नेताजी सुभाष चंद्र बोस की योजना और संघर्ष का भी बड़ा प्रतिफल थी। एक वर्ग विशेष की मानें तो ” भी ” लगाना निरर्थक है। चूंकि उनका मानना है कि नेता जी सुभाष चन्द्र बोस की बदौलत ही अंग्रेज घुटने टेकने को मजबूर हुए। फिर भी महात्मा गांधी के तमाम प्रयास और संदेशों को नकारा नहीं जा सकता। उन्होंने गुलामी के समय समाज को आडंबर से निजात दिलाने के लिए भी प्रयास किया था। जैसे कि गंदगी के खिलाफ स्वच्छता का संदेश प्रदान करना और अस्पृश्यता के खिलाफ स्तंभ की भांति खड़े रहना। उन्होंने सिर्फ अंग्रेजों से आजादी बस की बात नहीं की बल्कि एक इंसान के तौर पर मानसिक गुलामी और आडंबर से आजादी हेतु बड़ा प्रयास जारी रखा था। इसलिये गांधी का महत्व यहाँ बढ़ जाता है। चूंकि उन्होंने यह प्रयास किया भारत और भारतीय में जो सामाजिक कमियां हैं , उन्हें भी दूर होना चाहिए। यह उनका भारत में भारत के अंदर इंसानियत के लिए सीधा प्रयास था।
उन्होंने जिंदगी जीने के लिए भी न्यूनतम साधन – संसाधन में जीने का बड़ा संदेश प्रदान किया। खान – पान का संदेश भी स्वयं के प्रयोगों से देते रहे। मतलब साफ है कि गांधी चहुंमुखी व्यक्तित्व विकास के लिए प्रयासरत रहे। अंग्रेजों से आजादी सिर्फ गांधी की वजह से नहीं परंतु गांधी द्वारा सामाजिक रूप से भी बहुत कुछ मिला। यह भी तय है कि गांधी कोई ईश्वरीय शक्ति नहीं थे कि उन्होंने ईश्वरीय संदेश प्रदान किए थे। गांधी ने जो कुछ भी कहा वह भारतीय वेदांत दर्शन , आध्यात्म पहुंचाना है और स्वयं के मर जाने की धमकी देकर बात मनवाने की कला अहिंसा कहाँ हुई ? यह एक प्रकार से दूसरे पर हिंसा है और आपने मानसिक हिंसा स्वयं के साथ और सामने वाले के साथ की , यह तो कोई जिद्दी बच्चे जैसी बात हो गई। इसलिये इस गहन विचार के मुताबिक गांधी का व्यक्तित्व खंडित हो जाता है। और धर्म में पहले से बड़ी सूक्ष्मता से अंकित है , अंतर सिर्फ इतना सा है कि व्यक्ति विशेष के तौर पर नागरिक स्वयं वह सबकुछ पालन नहीं कर रहे थे। जिससे एक आदर्श समाज की परिकल्पना तय हो सके , जो आज भी तय नहीं की जा सकती है !
अगर इतिहास के तमाम उन तथ्य की बात करें , जिन्हें राष्ट्र का कांग्रेस नामक दल और तमाम वामपंथी विचारक सिरे से नकार देते हैं तो यह सत्य है कि 1935 से 1947 के मध्य स्वयं गांधी और नेहरू की कूटनीति अंग्रेजों के साथ जिन्ना के मुकाबले असफल रही थी। यही बड़ी वजह रही कि भारत का विभाजन हुआ और पाकिस्तान का निर्माण धर्म के आधार हुआ। यह भी उस समय की घटना है , जब एक राष्ट्र धार्मिक आधार पर बनता है तो वहीं अपने मूल में स्थापित भारत नामक राष्ट्र धर्म निरपेक्ष राष्ट्र का दर्जा प्राप्त करता है। जबकि देश के तमाम विचारकों का मानना था कि भारत को भी हिन्दू राष्ट्र हो जाना चाहिए। किन्तु भारत के पक्ष में तत्कालीन प्रमुख नेतृत्वकर्ताओं द्वारा ऐसा नहीं हो सका। जिसमें स्वयं गांधी की बड़ी भूमिका रही। इसलिये भारत में संतुष्ट वर्ग और असंतुष्ट वर्ग की स्थापना भी हुई।
इसके बाद की राजनीति की चर्चा यहाँ करना आवश्यक नहीं , जबकि टेक्नोलॉजी के समय में नागरिक हाल-फिलहाल की राजनीति से स्वयं जानकार हो रहे हैं। इसलिये लोग यह महसूस भी कर रहे हैं कि धर्म निरपेक्षता के नाम पर ठगा गया ! धर्म निरपेक्षता के नाम पर बहुसंख्यक वर्ग के साथ बेईमानी हो रही है। जबकि धर्म विशेष की जनसंख्या के लिए अल्पसंख्यक कल्याण आयोग का गठन भी किया जाए। कुछ विशेषाधिकार दिए जाएं और समय-समय पर राजनीतिक सरकारी संस्थान में मेहमाननवाजी की जाए , यह सब भी देश की जनता देखती रही और समय के साथ नेतृत्व बदलकर वर्तमान में देश राष्ट्रवाद और मोदी माॅडल की ओर चल पड़ा है। जहाँ सम्मान सभी का है परंतु आतंकवाद भी परिभाषित किया जाएगा। जहाँ एक समान कानून की चर्चा प्रबल हो जाती है और प्रमुखता मिलने लगती है। इस कालखण्ड से लगभग सभी बुद्धिजीवी परिचित हैं।
अब अगर आजादी के आसपास के गांधी और बटवारे के समय के गांधी की चर्चा की जाए तो उन पर सवाल खड़ा करने का हक भारत की जनता रखती है ! एक विचारधारा का बड़ा वर्ग सवाल करना जायज ठहराता है और वर्तमान सरकार पर हमला भी इस बात को लेकर करता है कि यहाँ सवाल खड़ा करना ही बड़ा बुरा हो गया है ? तो ऐसे में वही लोग बताएं कि गांधी पर सवाल खड़ा करना बुरा क्यों ?
आप परमात्मा पर सवाल खड़े कर सकते हो ! आप गांधी के राम को काल्पनिक किरदार कह सकते हो , आप सेतुसमुद्रम को गैर ऐतिहासिक बताकर सुप्रीम कोर्ट में बतौर सरकार हलफनामा दायर कर सकते हो फिर ब्रह्मचर्य के पालन पर और धार्मिक तुष्टीकरण के मुद्दे में गांधी पर सवाल खड़े करने से आफत क्यों आ रही है ? यह नैतिकता का विषय है। यदि आप वास्तव में नैतिक हैं और नैतिकता के पक्षधर हैं तो वर्तमान सरकार , और सरकार के व्यक्ति विशेष पर सवाल खड़े करने की नैतिकता की तरह गांधी पर सवाल स्वीकार करिए।
गांधी क्या करते थे ? सवाल सुनते थे और जवाब से तृप्त भी करते थे। उन्होंने आत्मकथा भी लिखी तो भारतीयों को तृप्त करने के भाव से लिखी ! अतः जिस प्रकार से आप वर्तमान में एक व्यक्ति , सरकार और विचारधारा के यदाकदा होने वाले अतिवाद को सिरे से नकारते हो वैसे ही गांधी पर अतिवाद क्यों खड़ा किए हुए हैं ? गांधी परमात्मा को मानते थे और आप परमात्मा पर सवाल खड़े करते हो तो गांधी पर सवाल स्वीकारिए और जिज्ञासा शांत करिए।
गांधी को जितना महान बनाना था उतना बना दिया गया। गांधी पर किताबें उपलब्ध हैं और समय-समय पर बहुत कुछ प्रकाश में आता रहता है। जिसे अबोध पढ़कर बोध प्राप्त कर सकते हैं। अब गांधी जहाँ थे , जहाँ हैं और जितने हैं वे उतने स्वयं में ठहर गए। चूंकि वर्तमान में गांधी के बाद से अब तक जो कुछ भी हुआ और हो रहा है उससे तय है कि गांधी के विचारों पर गांधी का सबसे बड़ा प्रयोग करने वाले लोग व दलीय विचारधारा का दल भी नहीं चल सका।
यह अलग बात है कि गांधी की लाठी को गांधी बनाकर वैशाखी स्वरूप प्रयोग करते रहे एवं सत्ता सुख लेते रहे। गांधी के नाम पर जिंदगी सुख से काट ली और अभी भी वही गांधीवाद की रटंत लगाकर मनोवैज्ञानिक आधार पर स्वयं को बहुत अच्छा इंसान महसूस कर लेना और गांधी का उपासक सिद्ध कर यह तय करवा लेना कि हाँ मैं एक अच्छा इंसान हूँ , चूंकि मैं गांधी को मानता हूँ ! कितना सरल है कि गांधी नाम बस से सारे कुकर्म पर्दे के पीछे चले गए। यह आदमी की सबसे बड़ी चतुराई है कि एक व्यक्ति को पूर्ण रूपेण अच्छा कह कर जुबान में सिर्फ उसका नाम लो और स्वयं को ” चरित्र प्रमाण पत्र ” जारी करवा लो ! चाहे पीछे धोखा सहित सारे काम गांधी के सिद्धांत के विपरीत करते रहें पर कोई तो चाहिए जिससे हमें बताना ना पड़े कि हम अच्छे इंसान हैं , बस गांधी की बात करो और पर्दे के पीछे वाली जिंदगी जीते रहो।
यह मनुष्य का दोमुहा प्रलाप है। इस देश को ऐसे लोगों से ही सबसे बड़ा खतरा है जो गांधी नामक स्थापित आदर्श को जुबान का श्रृंगार बनाकर द्रोपदी का चीरहरण करने वाले भारत के दुशासन मानसिकता के हैं।
वह लोग निर्दोष हैं जो गांधी को बिना पढ़े सीधे कोस कर गांधी मुखधारी बने दुशासन मानसिकता के लोगों का मानसिक जुबानी हिंसा के शिकार हो रहे हैं। गांधी अपनी बुराई पर बिफरते नहीं थे और गांधी के स्वघोषित अनुयाई सत्ता की जंग में गांधी की आलोचना सामान्य जन द्वारा होने पर भी फटकर ज्वालामुखी हो जाते हैं। अतः यह वक्त है स्वयं के आकलन की नाकि सिर्फ गांधी का प्रयोग कर जीवन भर की वैशाखी बनाकर उत्तम चरित्र का प्रमाणपत्र लिए मृत्युशैया पर लेट जाने की कोशिश हो , बात बड़ी सीधी है कि मृत्यु के समय कहा जाए कि बड़ा अच्छा इंसान था , गांधीवादी था ! यही इमारत तो खड़ी की गई है कि गांधीवाद के पीछे तुम्हारे मूल जीवन के समस्त पाप कब्र में दफ्न हो जाएं !
मूल्यांकन करना है तो स्वयं का करिए। इस वक्त के आधार पर स्वयं का मूल्यांकन करिए। किसी दार्शनिक ने कहा है कि नेतृत्वकर्ता हमेशा अपने बनाए पथ पर चलते हैं , इंसान अगर किसी और की तरह बनने की सोचेगा तो वह नेतृत्व नहीं कर सकता। यदि वह सत्ता तक पहुंच भी गया तो कुछ समय पश्चात ही उसका पतन हो जाएगा अर्थात यदि आप नेहरू , गांधी आदि होने की तरह की बात करें तब तो आप परिजीवी हुए और आपका निजी अपने पास क्या है ?
एक इंसान के तौर पर आप देश और समाज को क्या नया देकर गए ? आप किसी और के बताए पथ पर कोई समस्या सुलझाने के लिए बतौर उदाहरण चल सकते हैं। किन्तु वह समयानुकूल आपका व्यक्तिगत सिद्धांत नहीं होगा। अर्थात आप व्यक्ति का प्रयोग औषधि रूप में कर सकते हैं और जहर लेना भी व्यक्तिगत निर्णय होता है।
मुझे अभी याद है कि बारिश के मौसम में घर से बाहर निकल रहा था। दो आपस में जुड़ती सड़क के मध्य हल्का सा कच्चा रास्ता है। कुछ पल पहले ही बारिश थमी थी। इसलिये वहाँ मिट्टी गीली हो चुकी थी। मैं जैसे ही पहुंचा तो कोई और निकली हुई बाईक के पहिए के निशान बने थे। मेरे एक मन ने फौरन संदेश दिया कि इन्हीं पहिए से निकल जाओ अर्थात किसी और के बनाए रास्ते से चल पड़ो !
किन्तु एक मन से प्रतिक्रिया मिली कि अरे नहीं अभी जिस ओर टर्न तुमने किया उसी को अपना पथ मानो , वही तुम्हारा रास्ता है और यही रास्ता मेरे लिए सुगम है। किन्तु नया रास्ता बनाने में डर बहुत है , जैसे कि गीली मिट्टी में पहिया फिसल गया तो मुझे चोट आ सकती है। यही है मन की सूक्ष्मता किंतु चोट आने की सोच से परे होकर जब अपना पथ तय करते हैं तो नया रास्ता बनाते हुए स्वयं को बड़ा सुख मिलता है। चूंकि वह रास्ता हमने बनाया तो वह मेरा व्यक्तित्व है। यही एक गांधी से परे सभी का व्यक्तित्व है और जो बातें गांधी ने सामाजिक हित में कही थीं वो सिर्फ जुबान में रह गईं बल्कि उन पर चलकर भी तमाम जिंदगियों के लिए भौतिक रूप से अच्छा किया जा सकता था और धार्मिक , आध्यात्मिक व्यक्तिगत अनुभव व कारण हैं।
इसलिये आंकलन यह करिए कि इस युग में गांधी कितने प्रसांगिक रह गए हैं। यह ध्यान रखते हुए कि गांधी ने वही बातें कहीं हैं जो धर्म , अध्यात्म के दर्शन में अमुमन मिलती हैं। इसलिये गांधी कोई विवाद का विषय नहीं संवाद का विषय हैं बस !
आग्रह सिर्फ इतना सा है कि अगर गांधी होते भी तो वो यही कहते कि आप अपनी तरह रहो , अपना सुख जिसमे महसूस करो वह करो और देश व समाज के लिए हमेशा अच्छा करो। वह आपकी व्यक्तिगत स्वतंत्रता को आपसे गाली सहकर भी सम्मान करते , हाँ यही व्यक्ति के तौर पर गांधी की ताकत है जो ना अनुयायी में है और ना गांधी का प्रतिकार करने वाले लोगो मे है।
यदि गांधी की आप बहुत बड़ाई करते हैं तो यह भी आपकी कमजोरी है। चूंकि स्वयं आप में ऐसा कुछ है ही नहीं कि अपने बलबूते किसी को प्रभावित कर सकें। इसलिये गांधी नाम सहारा है। एक विचारधारा के तौर पर एक व्यक्ति को प्रतीक मानना भी व्यक्तिगत स्वतंत्रता का विषय है परंतु विचारधारा सार्वजनिक होती है , उसमें पर्देदारी नहीं रहती। किन्तु जो पर्दे के अंदर भी गांधी विचारधारा का हो वो जरूर किसी को धिक्कारने का आत्मबल रखे परंतु फिर से कि गांधी किसी को धिक्कारते भी नहीं थे !
ओशो ने भी गांधी के आत्मघाती व्यक्तित्व का वर्णन किया है। उसने कहा कि यह आत्मघात है। यह अहिंसा कहाँ हुई ? जब स्वयं को चोट पहुंचाना है और स्वयं के मर जाने की धमकी देकर बात मनवाने की कला अहिंसा कहाँ हुई ? यह एक प्रकार से दूसरे पर हिंसा है और आपने मानसिक हिंसा स्वयं के साथ और सामने वाले के साथ की , यह तो कोई जिद्दी बच्चे जैसी बात हो गई। इसलिये इस गहन विचार के मुताबिक गांधी का व्यक्तित्व खंडित हो जाता है।
यदि आप सहिष्णुता के पैरोकार हैं और अभिव्यक्ति की आजादी के पक्षधर हैं तो गांधी पर उठते सवालों पर भी ऐसे ही व्यक्तित्व का प्रदर्शन करिए। अन्यथा तय होने लगता है कि गांधी नाम का प्रयोग कर जो अन्याय आप लोगों द्वारा देश की एक जनसंख्या के प्रति अंधानुकरण में हुआ है , वही सोच गांधी के खिलाफ है। इससे बड़ा अन्याय गांधी के साथ और क्या हो सकता है ?
अतः तय मानिए कि यदि आपको नेतृत्व करना है तो रास्ता स्वयं बनाना होगा। आप स्वयं ऐसे बनिए कि सिर्फ गांधी का देश भर ना कहा जाए बल्कि आपका देश भी कहा जाए। जबकि इस देश का धार्मिक – आध्यात्मिक महत्व भी है। इसलिये इस देश के आकाशमय पृथ्वी का एक तारा गांधी कहे जा सकते हैं और गांधी के साथ अतिवाद गांधी का अन्याय है , उनके व्यक्तित्व का अपमान है।
कुलमिलाकर हम वक्त को संभाल लें। संभवतः इस वक्त के गांधी कुछ और होते। चूंकि दार्शनिक कहते हैं कि समय और स्थान बदलने के साथ इंसान का विचार भी बदलता है तो संभवतः इस वक्त के गांधी का विचार कुछ और होता। वर्तमान के आतंकवाद को देखकर संभवतः गांधी कह देते कि अब अंतिम विकल्प युद्ध से ही शांति है , भले नरसंहार हो जाएगा परंतु जब विचारों से किसी में परिवर्तन नहीं आ सकता तत्पश्चात उसका अंत ही शांति के पल से रूबरू कराएगा।
यह संभावना है और संभावना से इंकार कोई नहीं कर सकता। संभवतः अब के गांधी में और तब के गांधी में यह अंतर होता।
गाँधी जयंती के उपलक्ष्य में ख़ूबसूरर आलेख के लिये साधुवाद ।