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By :- Saurabh Dwivedi

बड़ी अजीब होती है जिंदगी। लिखाती – मिटाती जिंदगी। ऐसा कब होता है ? जब मैं सैड हो जाता हूँ। एक अंधकार सा महसूस होता है। जीवन में कहीं कुछ अच्छा महसूस नहीं होता। बस एक राह खोजता हूँ जीने की !

वीरान सी हो जाती है जिंदगी। हाँ जिंदगी धीरे-धीरे कुछ ऐसी हो गई। स्वयं में स्वयं को तलाशती जिंदगी। ऐसी जिंदगानी इक मेरी है ; संभवतः कहीं और भी हो ऐसी जिंदगानी।

हाँ हरहाल में ऐसा हो सकता है मेरी तरह किसी और जिंदगी मे भी ! बेशक कोई कहता है और कोई कह नहीं पाता , पर ऐसा होता होगा जब सबसे जुदा होकर कहीं एकांत में चले जाने का मन होता होगा।

कुछ खोजने की इच्छा जागृत होती होगी ? आसमान की तरफ देखते हुए बातें करने की इच्छा। ब्रह्मांड की शक्तियों से बातें करने की इच्छा। वहाँ से चली आ रही तरंगों से अपनी तरंगों के मिलन की इच्छा कि वे सुन लें मेरी और कुछ समाधान निकल आए इस वीरानेपन का !

एकाएक महसूस हो जाता जैसे कुछ अंदर रह ही नहीं गया। सबकुछ खाली हो गया है ; जैसे खाली घड़ा और कौआ प्यास बुझा लेना चाहता हो ? फिर प्यास कैसे बुझेगी जब जल ही नहीं है ; वह तो खाली है वीरान सा। बस पक गया है ; जब कच्चा था तो पुननिर्माण की संभावना थी और पक गया है तो वीरानेपन के बाद अंततः नष्ट ही होना है इसे !

एक ऐसी जिंदगी का लिखा जाना जरूरी है। शायद ऐसी जिंदगी से मुलाकात हो जाए और उन मुलाकात के पलों में जिंदगी को समझ लिया जाए। खैर हम सब अकेले हैं और अकेले होना भी नियति है , इंतजार सिर्फ समय का होता है। चूंकि सत्य है अंतिम सत्य है ; जाना अकेले है। बस जीने के लिए सखी जिंदगी की तलाश होती है।

अब कौन सी जिंदगी ” सखी जिंदगी ” है ? यही तलाश है ! ये तलाश अकेलेपन में जारी रहती है। जिंदगी से जिंदगी की पुकार पपीहे की तरह बांग देती है। लेकिन चुपके से मन ही मन ताकि जमाना ना सुन ले और अट्टहास ना कर सके।

अब देख लो यूं अकेले एकांत में अकेलापन महसूस होते हुए लिखने से क्या कुछ नहीं लिख जाता ? संभवतः नियति ने यही मंजूर किया था कि वो शाम आएगी और शाम के सफर के साथ मैं ” सखी ” जिंदगी लिखूंगा। हाँ यही अस्तित्व है तुम्हारा , बड़ा सूक्ष्म सा ! जिसे शायद कोई समझे या फिर ना समझे और समझने वाले सूक्ष्मता से समझ जाएंगे। कुछ नहीं तो समय समझा देगा।

तुम्हारा ” सखा “

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