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By – Saurabh Dwivedi

पिछले दिनों मैं एक अंकल जी की शाॅप पर बैठा था। इत्तेफाक से नई पीढ़ी के एक पत्रकार साहब मेरे बगल से बैठे थे। जिनका एक व्हाट्सएप मैसेज दिल्ली तक पहुँच जाता है और जिले में 99.9 रिएक्टर सेल का भूकंप आ जाता है। 

असल में रूचिकर तथ्य ये है कि मेरी तिरछी नजरों से जो कुछ दिखा उससे महसूस हुआ कि आजकल पत्रकार कैसे बनते हैं। मैंने देखा कि uc News में एक नेशनल न्यूज आई थी। पत्रकार साहब ने उस पर क्लिक करते हुए, उसका कुछ अंश काॅपी करते हुए व्हाट्सएप पर share कर देते हैं, फूटर में बकायदा अपना नाम फलाने ठिकाने पत्रकार और बस बन गई ब्रेकिंग न्यूज और ब्रेकिंग हनीप्रीत थी।


योग्यता सिर्फ इतनी सी है कि आपके पास एंड्रायड मोबाइल होना चाहिए और कट काॅपी पेस्ट करने की ट्रेनिंग लेनी होगी तत्पश्चात देश विदेश व एरिया वाइज लोकल की खबरों को ऐसे ही लोमड़ी सरीखी चतुराई से काॅपी पेस्ट करिए, कहतें हैं ना कि वो कहावत है नून लगे ना हर्रा ना फिटकरी रंग चोखा हो जाए तो आजकल नई पीढ़ी के कुछ पत्रकार ऐसे ही बन रहे हैं जो कागजी शेर की तरह कट काॅपी पेस्ट एंड एक्शन वाले पत्रकार हैं।

बेशक जनहित के लिए पत्रकारिता एक अच्छा समाजसेवा का काम भी है किन्तु आजकल जिस तरह से काॅपी पेस्ट वाले गिल्ली की दौड़ कहाँ तक बरगद का पेड़ अर्थात थाना ब्लाक आदि के साहेब लोग के पास तक और उससे वर्तमान में हो क्या रहा है, इस बात से हमारे सभी अपवाद स्वरूप मेहनती लगनशील पत्रकार बंधु वाकिफ ही हैं।

वैसे चाइना मोबाइल के दौर में पत्रकारिता भी मेक इन इंडिया ना होकर चाइनागिरी की तरह है, जो डोकलाम से पीछे हट ही जाते हैं और मेक इन इंडिया वाले तो डटे ही रहते हैं, वो पीछे नहीं हटते। बस इतना सा महीन फर्क है।

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