By :- Anand sharma
खट्टर कक्का ……हाँ इसी नाम से बुलाते थे उसे बस्ती वाले । बस्ती वाले ही क्यूँ बाज़ार में जहाँ वो दैनिक मज़दूरी किया करते थे वहाँ अन्य साथी , दुकानदार , रिक्शावाले , ठेले वाले सभी उसे खट्टर कक्का ही तो पुकारते थे । खट्टर मुसहर से खटरा बनने की बजाय खट्टर कक्का बनने का भी समुचित कारण था । खट्टर कक्का का स्वभाव बेहद ही शालीन और भाषा मृदु थी। खट्टर कक्का को अपने इसी गुण के कारण पुरी बस्ती में सम्मान मिलता था ।
पिछले एक पखवाड़े से खट्टर कक्का के घर पर विशेष हलचल थी।दो कच्चे कमरों के घर में खट्टर कक्का बेटे -बहू के साथ रहते थे । फ़िलहाल बेटा दिल्ली गया हुआ था । वो हर वर्ष गर्मियों में पानी की रेहड़ी लगाने दिल्ली चला जाता था ।चुनाव सर पर थे , मुसहरी में नेताओँ की आमद बढ़ गयी थी और आने वाला हर नेता जानता था की मुसहरी में खट्टर कक्का की बात कुछ युवाओं को छोड़ कमोबेश सर्वमान्य थी ।
फलतः नेताओँ का आगमन भी खट्टर कक्का के देहरी पर ही होता । खट्टर कक्का की बहू गर्भवती थी बावज़ूद इसके वो घर के सारे काम पुरी लगन से करती । नेताओँ के अपने दरवाज़े पर आगमन ने विनम्र खट्टर कक्का को भी गर्व महसूस कराना शुरु कर दिया था । एक पार्टी विशेष के बड़े नेताजी जिनकी बहूत बड़ी हवेली बस्ती के किनारे पर थी ।हफ़्ते भर पहले जब नेताजी स्वयं शहर से आए पार्टी के प्रत्याशी के साथ खट्टर कक्का के दरवाज़े पर उपस्थित थे तो कुछ पलों तक तो कक्का को अपनी आँखों पर यक़ीन ही नहीँ हुआ । दोनों हथेलियों को प्रणाम की मुद्रा में चिपकाये कक्का दौड़ ही तो पड़े नेताजी की ओर , अगले चंद सेकेंड में ही कक्का के दोनों हाथ नेताजी के पैरों के पंजे का स्पर्श कर रहे थे । कक्का पुरी तरह किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए थे । उनके दरवाज़े पर इतनी बड़ी शख्सियत पहली बार आईं थी । उन्हें समझ ही ना आ रहा था की उन्हें कहाँ बैठाए , कैसे उनसे बातें करें ।कक्का ने आनन -फानन में बहू के कमरे में पड़ी चौकी (तख्त ) बाहर निकाली , अपने अँगोछे से उसे अच्छे से साफ़ किया और एक पुरानी सी बेडशीट उस पर डाल नेताजी से हाथ जोड़ बैठने का आग्रह किया । आग्रह करते वक्त बेडशीट की गंदगी कक्का के ज़ेहन में अपराधबोध बन समा गई थी । उन्हें लग रहा था ऐसी गंदी बेडशीट पर बैठने को नेताजी को कहना शायद उनका अपमान था । कक्का शर्म से गड़े जा रहे थे तभी उन्हें सुखद अनुभूति हूई , नेताजी द्वय तख्त पर बैठ गये थे । नेताजी के साथ आए लोग इधर -उधर खड़े हो गए थे और इस इन सब के बीच एक इंसान यूँ हाथ जोड़े खड़ा था मानो कोई निर्बल -असहाय राजा के दरबार में कोई गुहार लगा रहा हो । कैसी विडम्बना थी ये , याचक दाता सा दिख रहा था और दाता याचक सा । जो वोट माँगने आए थे वो ख़ास आसन पर विराजमान थे और जो वोट दे सकता था वो दोनों हाथ जोड़े खड़ा था ।गाँव वाले नेताजी कह रहे थे -कक्का , आप से हमारा रिश्ता बर्षों पुराना है । आप तो जानते ही हैं हम हमेशा इस गाँव में हर समस्या में साथ खड़े होने के लिए उपलब्ध रहते हैं ।चुनाव का वक्त है , हमसब को समझदारी से काम लेना होगा , कोई ऐसा नेता चुनना होगा जो हमेशा हमारा साथ दे । नेताजी के ये शब्द कक्का को निहाल कर गए ख़ास कर कक्का से वर्षों से सम्बन्ध होने की नेताजी की सार्वजनिक स्वीकारोक्ति ने कक्का के ज़ेहन में मौज़ूद गर्व के भाव को कई गुना बढ़ा दिया था । नेताजी के चारों ओर घेरा बना कर खड़े बस्ती के लोगों के सामने कक्का को अपना अस्तित्व ऊँचा उठता सा महसूस हो रहा था । कक्का इन शब्दों के समक्ष अपना अस्तित्व समर्पित कर चुके थे । कक्का के लिए ये बहूत बड़ा सम्मान था की नेताजी ख़ुद को कक्का के साथ शामिल कर रहे थे । लगभग आधे घंटे की मधुर वार्ता के बाद नेताजी जा चुके थे और कक्का वहाँ जमा बस्ती बालों के समक्ष नेताजी की सहृदयता की दुहाई दे रहे थे ।
उस दिन के बाद बहू के कमरे से निकाला गया वो तख्त आगंतुक नेताओं के बैठने के लिए वहीं रख छोड़ा गया । कक्का की गर्भवती बहू अपने छोटे से अस्त -व्यस्त कमरे की ज़मीन पर चटाई बिछा सोने लगी थी । उस छोटे से कमरे में बेतरतीब सामान बिखरा पड़ा था । गर्मी की वज़ह से कुछ चीटियां और कीड़े भी इधर -उधर मँडरा रहे थे । बहू के लिए ज़मीन पर सोना कष्टप्रद तो था ही साथ ही कीड़े और फंगस की वज़ह से ख़तरे से युक्त भी था । किंतु जिस कक्का का पुरी बस्ती सम्मान करती थी उसके निर्णय को बदलने को कहना बहू के लिए असभ्यता का प्रतिक था । अतः उसने ख़ामोशी के साथ इस कष्ट को अंगीकार कर लिया । तख़्त बाहर पड़ा था , नेताओं का आगमन ज़ारी था और बहू की रातें ज़मीन पर करवट बदलते बीत रही थीं ।
चंद दिनों बाद मतदान की तारीख़ भी आ ही गई । नेताजी के आग्रह और कक्का के निर्देश के मुताबिक़ पुरी बस्ती ने बढ़ -चढ़ कर मतदान किया । शाम ढलते -ढलते कक्का के दरवाज़े पर लगा बस्ती बालों का मजमा कम हो गया था । कक्का ने आज़ पुरे दिन लोगों को मतदान के लिए प्रोत्साहित किया था । अब वे निढाल हो चुके थे । अपने बिस्तर पर पहुँचे कक्का आज़ आत्ममंथन कर रहे थे । उन्हें लग रहा था इस बार चुने जा रहे प्रतिनिधि के पास नेताजी के माध्यम से उनकी पहुँच होगी । बस्ती वालों की समस्याओं का निदान करवाना कितना सरल हो जाएगा साथ ही बस्तीवालों के सामने उनकी प्रतिष्ठा भी बढ़ जाएगी। बस्ती ने एक जुट हो नेताजी को वोट दिया था । आज़ कक्का बहूत ख़ुश थे ।
रात के एक बज़े कक्का की पत्नी ने उन्हें झकझोर कर जगाया । वो कह रही थी -बहू की हालत बहूत ख़राब है । पेट में तेज़ दर्द हो रहा है , बार -बार उल्टियाँ हो रही है । कक्का हड़बड़ा कर उठे ।दर्द की अधिकता से कराहती बहू की दबी -दबी सी आवाज़ (दबी -दबी इसलिए की महिलाओं का यहाँ ज्यादा ऊँची आवाज़ में कराहना भी असभ्यता समझी जा सकती थी और दर्द की इन्तहां में भी बहू का दिमाग ये सोच सकता था ) कक्का के कानों में पड़ी । उन्हें समझ ही नहीँ आ रहा था इतनी रात गए क्या किया जाए ?शहर का अस्पताल सात किलोमीटर दूर था । इतनी रात को वहाँ जाने को कोई साधन उपलब्ध नहीँ था । आनन -फानन में दो -तीन पड़ोसियों को उठाया गया । सभी कक्का की देहरी पर इकठ्ठा हो गए । पर कोई कुछ भी करने में सक्षम नहीँ था । ये असहाय लोगों का एक समूह था । तभी किसी ने कहा -नेताजी की गाड़ी दरवाज़े पर खड़ी है ।वो गाड़ी दे दें तो अस्पताल पहुँचा जा सकता है । कक्का दौड़ते हुए नेताजी के दरवाज़े पर पहुँचे । लोहे का बड़ा गेट बंद पड़ा था । चारों ओर नीरव शांति छायी थी। कक्का धीरे -धीरे गेट पर हाथों से थपकी देने लगे । दो -चार -छः -दस मिनट बीतते रहे । अंदर से कोई प्रतिक्रिया नहीँ आईं । हर बीतता मिनट कक्का को बैचेन कर रहा था । तभी कक्का के साथ आया एक पड़ोसी युवा लोहे के उस दरवाज़े को जोर -जोर से पीटने लगा । दरवाज़े से जोर -जोर की आवाजें उठने लगी । अंदर कहीं हलचल हुई । नेताजी का ड्राइवर गुस्से से भरा दरवाज़े तक पहुँचा । उसने अंदर से ही गुस्से भरी आवाज़ में पुछा -कौन है ?
बैचेनी और भयमिश्रित स्वर में कक्का बोले -मैं खट्टर ।
ड्राइवर – ये क्या बेहूदगी है ? इस तरह दरवाजा क्यों पीट रहे हो ?
कक्का – ड्राइवर भईया , मेरी बहू की हालत बहूत ख़राब है । उसे अस्पताल ले जाना है , कोई साधन है नहीँ सोचे नेताजी गाड़ी दे देते तो …….
ड्राइवर – कक्का दिमाग ख़राब हो गया क्या आपका , साहब की गाड़ी पेसेंट ढोएगी क्या ?
कक्का – ड्राइवर भईया , एक बार नेताजी को मेरा नाम बताकर पुछ तो लीजिए । वो ना नहीँ कहेंगें ।
ये नेताजी के चुनाव प्रचार की सफ़लता थी की कक्का के मन में इतना भरोसा उन्होंने जगा दिया था । ये कक्का की विफ़लता थी की उन्हें ये पता नहीँ था की धतूरे का फल केवल महादेव को ही चढ़ाया जा सकता है , आम इंसान उसे नहीँ खा सकता ।
ड्राइवर (आक्रोशयुक्त शब्दों में )- ठीक है -ठीक है , मैं पूछ्ता हूँ ।
ड्राइवर ने नेताजी को जगा उन तक कक्का की बात पहुँचा दी ।गहरी नींद से उठे नेताजी भड़क उठे – सवारी गाड़ी समझ लिया है क्या ? जाओ बोल दो सुबह काउंटिंग में जाना है । ठेले से अस्पताल ले जाए बहू को। अस्पताल में डाक्टर को मेरा नाम बोल देने को कह देना।
नेताजी का संदेश खट्टर कक्का तक पहुँच चुका था । दरवाज़े के आर -पार से हुई इस वार्ता ने कक्का और नेताजी के रिश्तों को नंगा कर दिया था । कक्का का गर्व नेताजी के दरवाज़े के सामने ही ज़मीन में समा गया था । ड्राइवर का ज़वाब सुनते ही कक्का ने शर्मसार नज़रें साथ आए युवक की ओर उठाई और नज़रें ना मिला पाने के कारण पुनः नज़रें झुका ली ।
थके से कदमों से कक्का घर लौट आए थे । वहाँ मौज़ूद लोगों को कक्का के साथ गए युवक ने ही सारी जानकारी दी थी । तब तक कलुआ अपना ढेला निकाल लाया था । बस्ती की महिलाएँ ठेले पर गद्दा डालने के बाद बहू को सुला रही थी । बस्ती के चार युवा और दो अधेड़ ढेले के साथ अस्पताल जाने को तैयार थे । चुनाव प्रचार के दौरान कक्का की आँखों पर चढ़ा अपने -परायों का धुंधला नकली पर्दा साफ़ होने लगा था और उन्हें अपने और पराये साफ़ -साफ़ नज़र आ रहे थे ।
आनंद शर्मा