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By – Rajendra Raj

हमारे कुछ मित्रों की मान्यता है (जो सही भी हो सकती है) कि अपराधी दंड से नहीं डरता। या दूसरे तरीके से कहें तो दंड का भय अपराध नियंत्रण में असफल रहा है।
भगवान मंदिरों में और अल्लाह मस्जिदों में और गॉड चर्चों में अपराध होते देख कर भी चुप रहता है। फिर भी लोग आस्थावान बने रहते हैं।
अपराधी दो प्रकार के तो जरूर हैं, ज्यादा प्रकार भी हो सकते हैं। एक भावावेश में, आवेगमें, क्रोध में, बचाव में अपराध कर बैठें। दूसरे अपनी अपराधी वृत्ति के कारण, स्वभाव के कारण या संस्कारों के कारण अपने कृत्यों को जायज मानने वाले लोग योजनाबद्ध तरीके से अपराध करने के आदी हों और अपने धनबल, बाहुबल, पहुंच के कारण डरने के बजाय डराने में यकीन रखते हों।
पहली श्रेणी के अपराधियों से अपराध हो जाता है और दूसरी श्रेणी के लोग अपराध करते हैं।
पहली श्रेणी के लोग कम हैं और पकड़े भी जाते हैं और सजा भी पाते हैं।
दूसरी श्रेणी के लोग बहुत हैं और प्राय: पकड़े नहीं जाते, और पकड़ भी गये तो छूट जाते हैं, पहले जमानत पर बाद में किसी न किसी कोर्ट से भी बाइज्जत। उनकी धमक समाज में बढ़ जाती है और वह औरों को अपराध की दुनिया के प्रति आकर्षित करती है।
पहली श्रेणी के लोग पश्चाताप भी करते हैं और उनके प्रति लोगों की सहानुभूति भी उपजती है। लोग उन्हें क्षमादान की अपील करते हैं, परिस्थितियों का शिकार मानते हैं।

दूसरी श्रेणी के लोगों से आम लोग डरते हैं और उनके विरुद्ध बोलने से भी डरते हैं और वो तो न केवल विजयी होते हैं, सत्ता का भी भोग करते हैं, ऐसे लोगों को वीर भोग्या वसुंधरा वाला वीर माना जाता है।
कुल मिलाकर कहना ये कि जिसकी लाठी उसकी भैंस का सिद्धांत अपनाओ और सारे कानून और दंड व्यवस्था को तिलांजलि दे दी जाए, क्यों कि सजा के डर से अपराध तो रुकते नहीं।

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