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By :- Saurabh Dwivedi

एक भाई , भाई की हत्या कर रहा था। उसके सर पर खून सवार था। हाथ में गनास ( फरसा ) लिए भाई को काटने हेतु राक्षसी अवतार लिए था। उसकी परिजन रोकने का प्रयास कर रही थी। उसने उस करूणामय स्त्री को भी धक्का मारकर जमींदोज कर दिया। ये दृश्य इतना भयावह था कि आंखे सजल हो गईं। मेरा कोई नहीं लगता था , मेरी जान – पहचान तक नहीं थी। दूर-दूर तक चांद – तारे सा रिश्ता नहीं था। किन्तु ऐसा कुछ था कि हृदय कांप गया !

नहीं देख सकता था , उस भयावह दृश्य को। मेरी आंखे कत्लेआम हो रहीं थीं , सरेआम हो रही थीं। पलके झुकाकर आंसू पी गया अंतस में। समा लिया दर्द हत्यारे रिश्ते का , हाँ रक्त का रिश्ता। जिस रिश्ते को मान्यता देते हैं हम , हमारा समाज। कहते हैं भाई , भाई का होता है फिर भी महाभारत हुई इसी भारत में और नाम पड़ा धर्म युद्ध। तब से कोई ना कोई युद्ध हो रहा है।

सुनने मे आया कानों में कि दो फुट भूमि के लिए मातृभूमि में लिटा – लिटा कर , लात मार मार कर गर्दन काट देना चाहता था। बड़ी तेजी से लपक रहा था और गनाश चला रहा था। उसकी देह में घाव हो गया और उसका घाव देखकर मेरे हृदय मे घाव हो गया।

मैं चला आया रिश्तों की पाठशाला में कि रिश्ते ऐसे होते हैं ? अरे हाँ खून के रिश्ते ! खून का रिश्ता खून कर रहा था , सरेआम ! राक्षस क्या खतरनाक होता होगा , जितना की वो खतरनाक था।

चूंकि रिश्ता खून का था , सामाजिक मान्यता का था। किन्तु आत्मीयता नहीं रही। अतः आत्मीयता के अभाव में , वो क्रूर हो गया। सचमुच अगर आत्मा का रिश्ता होता तो अथाह प्रेम होता। त्याग की भावना होती , धैर्य रखता। किन्तु दो फुट भूमि के लिए प्रदर्शन कर हत्या कर रहा था।

ऐसे ही हैं तमाम खून के रिश्ते जो जिंदगियों से खेल जाते हैं। कोई खुलेआम कत्ल कर देता है तो कोई षणयंत्र रचकर जिंदगी के सुख से खेल जाता है। खून के रिश्तों में यदि सुख होता है , सहयोग होता तो मनुष्य असफल ना होता। बल्कि जिंदगी की चरम सफलता को प्राप्त करता। रिश्तों का रिश्तों में संघर्ष है।

चूंकि बहुत कम रिश्ते मन की तरंग से जुड़े होते हैं। जब जड़ ही काट दी जाती है। एक जोड़ा मन की तरंग जुड़ा हो तो भी उस रिश्ते को धर्म , जाति और स्टेटस की बदौलत व्यवस्था के खिलाफ कहकर काट दिया जाता है। एक व्यवस्था है आज भी और थी कि सामाजिक व्यवस्था से दो अजनबी वैवाहिक जीवन मे बंध गए। फिर उनकी सोच – समझ आपस मे मिले ना मिले बस रात बितानी है। अतः समझने योग्य है कि क्यों रक्त के रिश्तों में आत्मीय प्रेम नहीं हो पाता ? समस्त संघर्ष की वजह ही यही है। सबकुछ व्यवस्था मे है और प्रेम अव्यवस्थित गुनाह करार दिया जाता है।

जबकि ऐसे प्रेमी कि मन की तरंगो से महसूस कर अभाव मे भी सुख महसूस करते हों , उनकी सोच समझ और विचार हद तक मिलते हों , वे मतभेद को सुलझाना जानते हों और जीवन के उद्देश्य से वाकिफ हों फिर एक साथ जीवन चाहते हैं। तत्पश्चात जो पीढ़ियां होगीं वो प्रेम महसूस करेंगी। इसके पीछे गहरा रहस्य है और इस संबंध में ओशो ने भी बहुत कुछ कहा है। ओशो के कुछ विचार अब समाज मानने लगा है। किन्तु अभी ओशो को समझने के लिए उच्चतम कोटि की बौद्धिकता के स्तर को स्वयं छू लेना होगा। अन्यथा होगा यही कि वीडियो वायरल होगें कि भाई ही भाई के खून का प्यासा है ?

मनुष्य गुस्से मे विवेक खो देता है। विवेकहीन होकर गुस्से के गृहण में राहु – केतु बन जाता है। जीवन अंधकारमय होने लगता है। ऐसी घटनाएं आए दिन घट रही हैं कि सुनकर हताश हो जाएं। बहुत कुछ बदलना शेष है , इस समाज मे अभी।

नेतृत्वकर्ता इतने महान हैं कि सारे यत्न सत्ता प्राप्ति के लिए हैं। उनके बयान विष से भी अधिक विषैले हो गए हैं। भला कोई नेतृत्वकर्ता प्रेम का आह्वान करे ? नहीं कर सकता। चूंकि वह एक किरदार है , किरदार निभा रहा है। अपनी नेतागिरी की उच्चतम सत्ता प्राप्ति तक के शिखर तक के सफर हेतु ! अतः वह सशक्त दिखता है और प्रेम पहले से ही अपराध है। प्रेम पर्दे की चीज है , पर्दे के अंदर रहने दो। बेशक प्रेम हो ना हो पर्दे के अंदर हवस भी मिटती है। बेचारी मिट्टी !

आज का नेतृत्वकर्ता कुर्सी की चाहत में ऊलजलूल हमला करना जानता है बस। ऊटपटांग के बयान और जनता का भी एक वर्ग ऐसे ही वर्लगर पर होठ फैलाती है , तालियां पीटती है और आपस में झगड़ जाते हैं। रिश्ता ही खत्म कर डालते हैं। खुद वैसा व्यक्तित्व बनने का प्रयास नहीं करेंगे , बस फैन बनने का शौक है। इसलिये नेतृत्वकर्ता अपना मूल नेतृत्व का कर्तव्य संवैधानिक व आध्यात्मिक आधार पर भूल चुके हैं। सत्ता की विशेषता के सिवाय भारत का सम्पूर्ण नेतृत्व संक्रमित मानसिकता का है , जिसमें भारत की छवि धुंधली ही होनी है। चूंकि यहाँ लम्बरदार बहुत पाए जाते हैं।

चलिए सोचिए कि आखिर क्यों हत्या के वीडियो नहीं आने चाहिए ? कैसे नहीं आएंगे ? किन्तु इन मुद्दों पर चुनाव नहीं होता। अतः भारत की जनता ऐसी बातों को सुनने – समझने का चुनाव नहीं करती। आखिर गहराई मे कौन उतरेगा ? जब जाति , धर्म और क्षेत्रवाद के आधार पर संक्रमित बातें सुनकर भी चुन रहे हैं तो भला वे बुनियादी बातें क्यों करें ? जिंदगी से जुड़ी समस्याओं पर प्रवचन क्यों दें ?

आप तो सामाजिक नशे में मस्त हो तो फिर रहिए मस्त। पस्त होकर भी मस्त दिखने की आदत जो है। ऐसे ही सबकुछ चलता रहेगा। बाहर विजन शोर मचाएगा और अंदर नफरत , कुंठा , हवस , बेरोजगारी , सुविधाओं का अभाव , कुपोषित बच्चे , अस्वस्थ नौजवान और प्रकृति का मारा किसान तथा सिस्टम से परेशान व्यापारी , भ्रष्ट प्रशासन आदि अनादि अंदर शोर मचाएगा। ऐसे वीडियो आएंगे कि आप रो देंगे कि अरे इतना घृणित कृत्य एक आदमी कर रहा है ? यही तो आदम और आदम से आदमखोर हो जाना।

ऐसा ना होने के लिए आमूलचूल बदलाव के साथ रक्त और आत्मा के रिश्ते की समझ विकसित करनी होगी , मन से महसूस करना होगा। इतने से अंतर से सबकुछ सुधारा जा सकता है। किन्तु पहल करनी होगी और अभी भारत में बहुत व्यापक बदलाव की जरूरत है। जो कोई कर पाएगा वही महान कहला जाएगा। अतः महान का कीड़ा सबके अंदर है तभी तो नाचती लड़कियों पर मुग्ध होकर नोटों की बरसात की जाती है। यदि मांग ले कोई मदद सामाजिक नेक काम करने के लिए तो जेब मे फूंका पड़ जाता है। ये मानसिकता का अंतर है। इसलिये समझिए कि कितना बड़ा मानसिक बदलाव आना शेष है फिर ध्वजा फहराइएगा धर्म का तो सुखद भी लगेगा। अभी तो बस आंखो मे नफरत और प्रदर्शन देश भक्ति का है।

एक बड़े सामाजिक बदलाव की आवश्यकता है। जो मनुष्य कर सकता है चूंकि परमात्मा ने स्वविवेक प्रदान किया है। तो समझिए क्या कुछ होना अभी शेष कि अभी सिर्फ गनाश चली है , हत्या नहीं हुई। सांसे चल रही हैं , समाज की !

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