
प्रिय शोभा
तुम्हारी पीठ को देखकर मुझे कोरा कागज याद आया था, लेकिन जब तुम्हारे उभारों पर नजर पड़ी, तो लगा जैसे उस कागज पर पहली बार कोई कविता उकेरी गई हो सजीव, आत्मनिर्भर, अपनी परिभाषा खुद गढ़ती हुई।
क्या तुम्हें पता है, शोभा ? जब तुम वो किताब पढ़ रही थी, तुम्हारे चेहरे पर एक शांति थी—मानो शब्द तुम्हारी आत्मा को सहला रहे हों। और जब पास में रखी बोतल और प्लेट को देखा, तो लगा कि तुम अपनी शर्तों पर जी रही हो, बिना किसी औपचारिकता या दिखावे के।
तुम्हारे उभार किसी जड़ परंपरा की बेड़ियों में बंधे नहीं, बल्कि स्वतंत्रता का वह प्रथम उच्चारण हैं, जो हर औरत के भीतर जन्म लेने को आतुर रहता है। यह सिर्फ शरीर का आकार नहीं, यह प्रकृति का सबसे सहज संगीत है। एक लय, जो अस्तित्व के उत्सव को गाती है। यह वही वक्रता है, जिसमें सौंदर्य भी है, शक्ति भी, और सबसे बढ़कर स्वतंत्रता भी।
जब तुम सहज होकर, बिना किसी हिचक के अपने उभारों को वैसे ही स्वीकार करती हो, जैसे आकाश अपनी नीलिमा को, जैसे नदी अपनी धार को, तो तुम उन तमाम रूढ़ियों को चुनौती दे देती हो, जो औरत के शरीर को बस एक वस्तु मानकर उसे नियंत्रण में रखना चाहती हैं।
तुम्हारा यह रूप न शालीनता से परे है, न उत्तेजना में बंधा , यह बस स्वाभाविक है, जैसा कि होना चाहिए। इसे देखकर जो सहज महसूस करता है, वह सौंदर्य के सत्य को पहचानता है ; और जो इसमें कोई अपराध ढूंढता है, वह अपने ही जड़ संस्कारों का कैदी है।
तुम्हारे उभार, शोभा, तुम्हारी आत्मा का विस्तार हैं उन्नत, निर्भय और अभिव्यक्त। यह तुम्हारे भीतर की स्त्री का वह गर्व है, जो किसी भी दृष्टि से परे, बस स्वयं की स्वीकृति में खिल उठता है।
और जब समाज की औरतें तुम्हारी इस सहजता को देखती हैं, तो एक पल के लिए वे भी अपनी दबी इच्छाओं को टटोलती हैं काश, वे भी इतनी ही स्वाभाविक, इतनी ही निर्भीक, इतनी ही स्वतंत्र हो पातीं!
तुम्हारी इस अभिव्यक्ति के लिए, तुम्हारी इस गरिमा के लिए, और सबसे अधिक तुम्हारी इस सहजता के लिए — तुम्हें मेरा नमन।
तुम्हारा
एक अज्ञात दोस्त