@Saurabh Dwivedi
मैं चाय के ठेले पर सामने की ओर खड़ा था। पीछे से एक आवाज आई ” दादू कुछ दई दे “। मैंने सामान्य भिखारियों की तरह उस औरत पर नजर दौड़ाई। वह मेरी नजरों को समझ चुकी थी और कहने लगी ” ना होय तो चायय पिया दे ।” म्वा राजा कतों भूखा नहीं रही। वो अपने बेटे की तरह करूण आवाज मे पुकार रही थी कि रूपया दे दो या चाय पिला दो।
दादी की हालत देखकर मन ने शुभ संकेत दिया। मुझे प्रतीत हुआ , नहीं यह पेशेवर भीखारी नहीं है। मैंने पीछे की जेब मे हाथ डाला तो 10 ₹ का सिक्का निकल आया।
मैंने कहा दादी लीजिए , प्रभु का नाम लेकर दे दिया जैसे एक कथानक मे श्रीकृष्ण ने दो आना दिया था। इतने मे वो फिर बोलने लगीं कि ” म्वा राजा कतों भूखा ना रही। ” मैंने कहा दादी आपका आशीर्वाद लग जाए। कलयुग के धनयुग मे इतना धनाढ्य तो हो ही हों कि कुछ कर सकें , जो मन मे आकांक्षाएं व महत्वाकांक्षा हैं।
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मैंने दादी से कहा कि लगभग सब ऐसे ही हैं। मेरा पैंट-शर्ट और चश्मा देखकर अमीर आदमी मत समझ लेना। सबके जीवन मे समस्याएं हैं। हम भी किसी ना किसी समस्या से सफर कर रहे हैं। कोई ऐसी अनंत पीड़ा भी हो सकती है जिसमे हम सफर कर रहे हों।
सामने वस्त्र धारण किए हुए देह से कुछ नहीं होता। कमोवेश परेशानियों का सामना सबको करना पड़ता है। जिंदगी के चक्र में हम पेंडुलम की भांति गति करते रहते हैं। जिंदगी की घड़ी मे समय बीतता जाता है , पेंडुलम राइट – लेफ्ट होता रहता है। समय के फेर से हम बच नहीं सकते और ऐसे अनुभव लगभग सभी को होते हैं , समय-समय पर। नंबर सबका आता है , पहले या बाद में !
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जिसने – जितना दुख – दर्द मुफ्त मे सहा है उसकी अंदुरूनी झलक उसे ही अहसास होती है। असल मे सबके अपने अलग-अगल कष्ट हैं। युवा नौकरी के लिए भटकता है। या बिजनेस मे कुछ कर दिखाने के लिए कोशिश करता है। किन्तु प्रतियोगिता परीक्षाओं की तरह फर्स्ट एटेम्ट मे पास कर जाएं , यह आवश्यक नहीं है। जिंदगी के इम्तहान मे अनगिनत इम्तहान देने पड़ सकते हैं। लेकिन सांसे जब तक चलेंगी , इंसान जद्दोजहद करेगा कि मार्ग मिले और कुछ करें।
10 रूपए मिलने के बाद दादी बेंच मे बैठ गईं। वैसे ही चाय वाले सोनी ने कहा कि इसका पैर का आप्रेशन कराने लायक है। इतना सुनते ही मैंने कहा दादी पैर दिखाओ ? उसने हल्के पर्दे को हटा दिया , उसके पैर की हालत साफ नजर आई। एक पैर मे चप्पल है तो दूसरे पैर मे चप्पल नहीं पहन सकती ! यह भी दादी का नसीब है कि दोनों पैरो मे चप्पल नसीब नहीं हो सकते।
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फिर मैंने दादी से पूछा , घर मे कौन-कौन है ? उसने कहा एक बेटी है। दादी कहती हैं बिटिया शादी लायक हो गई है। माँ को शादी करने की ही चिंता हो जाती है। जन्म होने के कुछ समय बाद ही शादी की बात मजाक मजाक मे होने लगती है या शौकिया कहा जाता है कि अब बच्चे की शादी करेंगे। भारतीय समाज का एक बड़ा तपका आज भी इतना ही सोचता है।
तो मैंने कहा पति हैं ? उसने कहा नहीं पति भी नहीं है। मैं हूँ मेरी बिटिया है। पेट भरने को भीख मांगती हूँ , बिटिया की शादी भी करनी होगी।
ये एक माँ है। मदर्स डे पर माताओं का वंदन – अभिनंदन होता है। बेटे माँ की तस्वीरों के साथ फोटो डालते हैं , माँ बच्चे के साथ नजर आती हैं। किन्तु यह भी एक माँ की फोटो है। और बेटी बचाओ – बेटी पढ़ाओ वाले भारत में ऐसी माँ – बेटी भी हैं जो असहाय हैं। यह भारत की सच्चाई है।
ऐसी माँ – बेटी पर सरकार की नजर नहीं पड़ती। दो नेत्र सबके होते हैं , एक हृदय होता है और हमारी लोकतांत्रिक सरकार मे इतने नेत्र होते हैं कि दिव्य दृष्टि से कम नहीं कहा जा सकता। अंत्योदय से भारत उदय हो या समाजवादी विचारधारा हो और सबके रहते हुए सूर्य के प्रकाश मे एक जिंदगी की ये हकीकत है।
किसी ने कहा कि भारत भाग्यविधाता है। यहाँ लोग पिछले जन्म के कर्म का तगाजा लगाकर इस जन्म मे मिले कष्ट को भाग्य मान लेते हैं कि यह फलभोग है। लोग अधिक से अधिक भाग्यवादी हैं। सच है कि भाग्यवादी होने से लाभ होता है कि कभी भी कोई विद्रोह भारत मे मूलभूत अधिकार के लिए नहीं होगा , रोजगार और स्वास्थ्य हमारा अधिकार है। चूंकि झोपड़ी मे रहने वाला अपना भाग्य मान लेता है। महलों मे रहने वालों को खास फिक्र नहीं होती , यह भी एक कारण है। और जनसंख्या निरंतर बढ़ती जा रही है बल्कि जन मे गुणवत्ता की वैसी ही कमी आई है जैसे दूध मे पानी मिलाकर कम गुणवत्ता वाला दूध बेचा जाता है। वैसे ही मिलावटी भीड़ बन चुकी है जनता। जबकि जनसंख्या साधन – संसाधन के संतुलन के अनुसार गुणवत्तापूर्ण होनी चाहिए।
जब दादी को चाय मिल गई। फिर दादी ने आशीर्वचन दिया , मैंने कहा बस दादी आपका आशीर्वचन लग जाए। आपके आशीर्वाद से मैं भी जीवन मे कुछ कर पाऊं। अपने व्यक्तिगत जीवन को अच्छे से जी लूं।
मैंने कहा इससे ज्यादा देने के योग्य नहीं हूँ पर मेरे पास लेखन है और संकेत मिला कि दादी की फोटो ले लो ! फोटो यह कहकर ली , नहीं कहते दादी कोई परमात्मा का सामर्थ्यवान व्यक्तित्व आपकी समस्या के काम आ जाए। पैर भी ठीक हो जाए और बिटिया की शादी भी हो जाए।
मैंने कह चूंकि एक जिंदगी की बात है। मैंने जिंदगी के दुख – दर्द और संघर्ष की पीड़ा को महसूस किया है। कभी – कभी भीख मांगने से नहीं मिलती और नौकरी भी बहुतायत मांगने से नहीं मिलती हैं। यह समय की सच्चाई है। जब तक हम जिंदगी को समझते हैं वह मुट्ठी मे रेत की तरह फिसल चुकी होती है।
दादी ने मुझे दुआ दी है। एक माँ का मार्मिक वचन लग रहा था। परमात्मा दादी की समस्या को भी हल करे या फिर दादी ऐसे ही जिंदगी जिएंगी जैसी जिंदगी किसी – किसी को मजबूरी मे जीनी पड़ सकती है।
” यह जिंदगी है
जिंदगी के खेल
निराले हैं
कहने को अपने
बहुत हैं पर
उनमे से कोई एक काम आ जाए
वही अपना है “