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By :- Saurabh Dwivedi

प्रेम में बड़ी टकराहट चल रही है आजकल। हृदय और सीने में साँसो के उफान से बादलों की गड़गड़ाहट सी है। किन्तु प्रेम तो प्रेम है। एक अलहदा सुख जो सचमुच स्वयं मे महसूस किया जा सकता है और जिया जा सकता है। बयां करने पर सबका प्रेम अलग – अलग है। लोगों के अनुभव अलग – अलग हैं। जिसने जो पाया वही बयां कर दिया। इसलिये तो आजकल सुनने को मिलता है कि प्रेम मे छले जा रहे हैं ?

प्रेम होता ही छलने के लिए है। जहाँ छल ना हो वहाँ प्रेम कहाँ ? श्रीकृष्ण को छलिया क्यों कहा गया ? खैर वह ठहरे भगवत् स्वरूप हमें तो इंसान और इंसानी प्रेम की बात करनी है। वह भी विशुद्ध स्त्री और पुरूष के प्रेम की , उनके आलिंगन की और भावनाओं की जो अहसास में बिखर जाते हैं।

बड़ा दर्द सुनने को मिल रहा है। किसी को प्रेम के बाद नफरत हो रही है तो कोई छले जाने से डर रहा है और कह रहा है कि छले मत जाओ और खत्म कर दो प्रेम को , इस दुनिया मे और भी है बहुत कुछ करने को ! इस दुनिया में बहुत कुछ करने को प्रेम से पहले भी बहुत कुछ है , लेकिन प्रेम के बाद ही क्यों बहुत कुछ करने को सोचते हैं ?

ऐसा नहीं है। यह सिर्फ सांत्वना है , वह भी क्षणिक है। यदि प्रेम है और सचमुच मे प्रेम हुआ है तो प्रेम ऊर्जा है। प्रेम ऊर्जा से सृजन होता है और अनवरत सृजन किया जा सकता है। यहाँ फिर नफरत का कोई मोल – तोल नहीं है , कोई स्थान नही है। यहाँ सिर्फ अपनत्व ही अपनत्व है।

क्यों प्रेम को दोष देना ? दोष देना चाहिए अपने बनाए संसार को , यहाँ की तमाम उन परंपराओं को जिनके सांचे में सबकुछ ढल सकता है पर प्रेम नहीं ढल पाता। प्रेम नहीं जमता बर्फ की तरह सांचे में , सोचिए जरा ! यहाँ एक व्यवस्था है और व्यवस्था में आवश्यक नहीं कि प्रेम हो ही !

चूंकि विवाह एक सामाजिक व्यवस्था है और व्यवस्था के अंतर्गत जो काम होगा , वह सर्वप्रथम व्यवस्था है। अब आवश्यक नहीं कि प्रेम हो ही ! तमाम लोगों के लिए ठीक है जो प्राणी एक व्यवस्था के अंतर्गत रहते हैं। किन्तु जिस व्यवस्था रूपी विवाह में प्रेम नहीं वहाँ फिर जीवन का सुख नहीं रहता। फिर भी लोग जिए चले जाते हैं और सामाजिक परंपराओं का हंसी – खुशी निर्वाहन करते हैं। तस्वीरों में हंसना , खुशी का प्रदर्शन करना बड़ी अलग बात है और जिंदगी परमानंद अंदुरूनी अहसास है !

यहीं से सुकून के रिश्ते का जन्म होता है। जो आवश्यक नहीं कि व्यवस्था के अंतर्गत हो। यह सुकून व्यवस्था की जंजीरों को छिन्न भिन्न कर भी मिल सकता है और संभवतः होता ही ऐसा है। समझना बड़ा आसान है कि वह फिर कोई सामाजिक मान्यता नहीं मांगता सिर्फ और सिर्फ आत्मा का सुख है वो !

सोलमेट सिर्फ काल्पनिक नहीं है बल्कि हकीकत है। पुरूष मित्र हों या महिला मित्र ऐसा कोई ना कोई मित्र होगा जो जाति – धर्म और रक्त के रिश्ते से परे अत्यधिक विश्वास पात्र और उसका साथ सुकूनदायक लगता होगा।

ऐसा ही प्रेम होता है। वह विवाह का बंधन नहीं सोचता। वह विवाह से परे भी हो जाता है। विवाह से पूर्व भी होता है। किन्तु प्रेम होता है और प्रेम जीवन का वास्तविक सुख है। जहाँ प्रेम हो जाता है वहाँ सुख ही सुख होता है , उसका दर्द भी सुख होता है। हम अपनत्व में अश्रु भी पी जाते हैं।

इसलिये प्रेम नहीं छलता , समाज छलता है। आपकी व्यवस्था छलती है। पाप – पुण्य की अवधारणा छलती है। धोखे की भावना छलती है। ऐसा बहुत कुछ है जो छल ले जाता है प्रेम को। प्रेम होकर भी इंसान छल जाता है , वजह प्रेम नहीं समाज है और यहाँ का आडंबर है। एक इज्जत मनुष्य पर शासन करती है और वह इज्जत जिंदगी मे कोहराम मचा देती है।

यही वो सबकुछ है। जहाँ प्रेम असहाय हो जाता है। वो सचमुच है तो अंदर ही अंदर घुटकर जी लेता है पर अपने साथी के साथ गलत नहीं करता। प्रेम सचमुच मे है तो सृजन बन जाता है और वहाँ सिर्फ देह का मिलन नहीं बल्कि मन और आत्मा से मिलन होता है। वह मिलन कल्पना मे ही अद्भुत होता है , वास्तविकता में व्यक्तिगत अनुभव की बात है। किन्तु उस मिलन की कल्पना ही बड़ी अद्भुत है।

अतः प्रेम मे चरमोत्कर्ष की यात्रा तय करने के बाद छल और नफरत जैसी कोई बात बामुश्किल ही हो सकती है। अन्यथा उससे पूर्व प्रेम है ही नहीं। चूंकि समाज में नफरत , कुंठा और गुस्से आदि प्रदर्शन के लिए जगह तो रही किन्तु एक प्रेम के लिए संकरी गली भी बामुश्किल ही नसीब हुई तो समझिए कि प्रेम ” जी ” कहाँ पाते लोग ?

किसी दार्शनिक ने कहा है कि यदि वास्तव मे प्रेम है तो प्रेम ऐसी ऊर्जा है कि उससे अनवरत सृजन किया जा सकता है और मेरा मन , मेरी आत्मा की पुकार है कि सचमुच कल्पनाओं मे ही सही वास्तविक प्रेम में दर्द सहकर भी सृजन किया जा सकता है। हाँ ऐसा होता है। अब प्रेम कोई बंधन का मोहताज नहीं और ये सच है। बेशक कोई गलत कहे या माने पर यह भी सच है कि आवश्यक नहीं कि बंधन में प्रेम हो और जहाँ प्रेम है वहाँ आवश्यक नहीं कि बंधन हो। या सात फेरों का बंधन हो।

प्रेम स्वतंत्र और सहज है। वह आत्मा से आत्मा को हो जाता है। महसूस हो जाता है। एक तस्वीर महसूस करा देती है और निगाहें टिक जाती हैं। वो मन नयनों से अंदर प्रवेश कर जाती है। आत्मा ही आत्मा को पूरकता से महसूस कर लेती है। यह अलग बात है कि मध्य में समाज आ जाए और लकीर खीच दें , आकाशीय बिजली सी तड़कती हुई लकीर ! जो गाज के सरीखे गिरकर प्रेमियों को विलग कर देती है अथवा आनर किलिंग कर देती है।

इसलिये दोष प्रेम को नहीं है। दोष हमे , हमारे समाज को है , समय को है। व्यक्ति विशेष को हो सकता है। किन्तु यदि हमारे अंदर आत्मीय प्रेम है तो हम उस प्रेम को मन ही मन जी लेंगे। उस प्रेमस्रोत को जिंदगी में सृजन का माध्यम बना लेंगे। प्रेम विध्वंस नहीं करता , प्रेम साधन है सृजन का।

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