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By – Saurabh Dwivedi

प्रेम
दब जाता है
कहीं गहरे में
पुनः उगने के लिए

जैसे भुरभुरी मिट्टी के नीचे
बीज दब जाता है
मिलती है जब खाद – पानी
अंकुरित होता है
वो बीज
लहलहाती फसल के रूप में

खिले पुष्पों को देखकर
सीने में समाई खुशी
अधरों की खिलन से
मुस्कुराते हुए दिख जाती है

ऐसे ही प्रेम
वो बीज है
जो सीने के अंदर
कहीं दब सा जाता है

एकाएक भाव उमड़ते – घुमड़ते
अनायास ही अंकुरण हो जाता प्रेम
दग्ध हो जाता है सीना भावनाओं से
खिल जाते हैं अधर
पलकें सराबोर हो जातीं
प्रेमिल छवि के अहसास से
एक गहरी साँस
हवा की भांति आकर
परिपूर्ण कर देती

इस प्रकार खिलता है
वो प्रेम
जो दब जाता है
सीने मे कहीं …

तुम्हारा ” सखा “

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