By – monica sharma
मेरे जीवन के रंग स्याह रंग अब भी न भर सकी पर मुझे रंगो से बेहद प्यार है.. रंग इंद्रधनुष के मानो परियों के देस में जाने की कोई राह, रंग तितलियों के जो कहते है मुझे हर बार मुझे तुम छू लो और फिर जादू देखो…,रंग फूलों के जो कहते हैं हमे देख जीना सीख लो पत्थर हो या पहाड़, रेत हो या पानी , सूखे बंजर में नदी किनारे या पेड़ों की छाँव में उनकी जड़ों में चिलचिलाती धुप में बिन बोले बिन विरोध किये मौन संघर्ष लिए हम खिल जाते हैं चाहे गुलाब के रूप में या जंगली फूल या फिर के आक के जहरीले सत्यानासी से पिले या कैक्टस झाड़ियों में कहीं पेड़ों की जड़ों में घास के फूल , हमे किधर लिली गुलाब बेला की तरह बगिया मिलती है.. हम तो फिर भी खिल जाते हैं रंग लिए सफेद जामनी पिले हरे रंग लिए…
मैं बड़ी बोल्ड थी और हूँ भी पढ़ी लिखी भी हूँ गालियां भी देती हूँ गुस्सा आता है जब, पर कभी घर वालों का विरोध नही कर पायी जब क्वारीं थी संस्कारों और डर ने माँ बाप के आगे नही बोलने दिया .. उन्होंने जो मना कर दिया तो कर दिया .. पर फिर भी लड़ाकी थी किसी को भी पीट देना मार देना सर फोड़ देना.. क्या करूँ पड़ोसी तंग ही बहुत करते थे उन्हें लगता था शर्मा जी कर ही क्या सकते हैं.. चार बेटियों के बाप हैं और बेटा तो अभी बोलना भी नही जानता.. उनका रोज गन्दा पानी फेकना कचरा फैंकना क्यारियों से मिटटी खोद ले जाना और भी कई रीजन थे.. ऊपर से बेटों की धौंस और मुझे गुस्सा आता मैं उसका चुंडा पकड़ घुमा देती मरियल सी थी पर ताकत बहुत थी जवानी वाला खून था लातें मार मार उनके घर के दरवाजों की नींव हिला दी थी…कोई भी मेरे डर से अब ममी से नही लड़ता था पर घर में ममी की मार खाती थी बड़ा डरती थी नही कर पायी विरोध… जब शादी हुई तो पड़ोसियों ने चैन की सांस ली की मोहल्ले की गुंडी चली गयी ये शब्द थे उनके… और एक मैं थी घर में नही कर पाई विरोध की मुझे और पढ़ना है या जिस खूंटे से बाँध रहे हो उसकी शक्ल ही दिखादो .. जमाना मेरे वक़्त में इतना पिछड़ा नही था की लड़के लड़की मिलते नही थे 2000 की ही तो बात है पर नही पापा ने ना कर दी तो कर दी और नही कर पायी विरोध….
ससुराल में आकर बहुत कुछ सहा शायद नर्क उसे ही कहते हों… पर नही कर पाई विरोध बाहर तब भी लड़ आती मेरे जैसी बहू पा कर सास और पति खुश थे की डरती नही सर फोड़ देती है बाहर वालों का कोई चूँ बोल कर तो दिखाये… पर जो घर में मेरे साथ हो रहा था उसका विरोध नही कर पाई क्योंकि तब जिम्मेदारियां समझ आने लगी समाज को देखने लगी दुनियादारी समझ आई बहनो की फ़िक्र, पिता की फ़िक्र और एक मानसिक कुंठित समाज जो एक अकेली औरत को किस नजर से देखता है ये सोच सबसे सेफ जगह पति का ही घर लगा.. और सहती रही नही कर पाई विरोध…
मुझे कइयों ने कहा आपने क्यों सह लिया विरोध क्यों नही किया… चलो कर भी लेती पर माँ बाप कितने दिन रखते बिन ब्याही बेटी बोझ नही लगती पर ब्याहता बेटी छाती पर भारी बोझ हो जाती है समाज नाते रिश्तेदार लांछन लगा लगा जीना हराम कर देते हैं। एक विधवा की फिर भी समाज इज्जत करता है पर तलाकशुदा उनकी नज़र में किसी रन्डी से कम नही होती.. ये कड़वा सच है.. पर आज की मोडर्न महिलाएं इसे मानने ने से इनकार कर देंगी… अच्छा चलो कर लेती विरोध और जो महिलाएं विरोध क्यों नही किया आप गलत है अन्याय सहना गलत है की सलाह देती हैं उनमे से कितनी औरतें जो मेरे विरोध करने पर घर से निकाले जाने पर , अपने पति और सास से बिना सलाह किये अपने घर बुला कर घर लेंगी, कितनी औरतें जब तक नोकरी न लगे साल छः महीने अपने घर रख सकती हैं अपने पति और परिवार के खिलाफ जा कर ,क्योंकि माँ बाप तो मेरे रखने से रहे .. वो पक्का कुछ दिन बाद जाने को कह देंगे,.. और क्या पता नोकरी न भी लगे उम्र भर खिलाना पड़ जाए….
चलो एक हफ्ते पुरानी बात बताती हूँ कुछ जरूरी पेपर टेबल से उठा इनकी अलमारी में रख दिए… अगले दिन उस जगह यानी टेबल पर वो पेपर नही मिले…
मुझे पूछा तो मैंने कहा की अलमारी में रख दिए चिढ और गुस्से में जो हुआ सो हुआ ये भी कहा की ये हक किसने दिया तुझे की मेरी चीजों को हाथ लगाये होती कौन है तू मेरे समान को हाथ लगाने वाली… और ये बात उसी दिन की नही कई बार कह चुके .. मैंने शादी को इतने साल हो गए कभी इनकी जेब तक चेक नही की हिम्मत ही नही हुई ,कपड़े धोती तो कई बार कुछ पेपर भीग जाते पर आज भी नही करती.. क्योंकि घरवालों से नही विरोध करने की ताकत मुझमें.. क्योंकि ये भारत है विदेश नही की फटाफट एक्शन लिए जाएँ या गुजारा भत्ता मिले अकेले रहने पर.. की लोग बातें न बनाएं…
चलो अबकी बार जब वो मुझे एब्यूज़ करेंगे बेटे को करेंगे मारेंगे तो मैं आप सबको फोन कर दूंगी, आप सब आना मुम्बई मेरे साथ विरोध में खड़े होना.. चाहे आने जाने का कितना ही किराया लगे बच्चे छोड़ कर आना पड़े पति से लड़ कर आना पड़े , क्योंकि आप सब मेरे साथ हो और कहीं से तो शुरुआत करनी ही है ना.. और डीपियां भी काली करना उस दिन…
आओगी ना?
….
ये लेंगिग भेद कभी दूर न हुआ है न होगा … और ये आप सबको भी पता है फिर भी ये दिखावा क्यों ये सच क्यों नही स्वीकार कर पाती महिलाएं…
फिर अपने घर से ही शुरआत कीजिये बराबरी की… पति नोकरी करने जाते हैं मशीनों और आठ घण्टे पसीना बहाते हैं पैदल चलते हैं आप पैदल बाजार जाया कीजिये क्योंकि औरत मर्द बराबर है टेक्सी ओटो मत कीजिये…
बराबरी करिये जब भीड़ में पुरुष कम्पार्टमेंट में चढ़ जाएँ और छेड़ छाड़ हो तो मत बोलिये की महिला वाले डब्बे में क्यों नही चढ़ी छेड़छाड़ तो होगी ही… क्योंकि ये बात कह कर स्त्री और पुरुष को आप ही अलग कर रही हैं… क्यों टिकट खिड़की में महिलाओं की लाइन फिर अलग चाहिए आपको क्योंकि ये लेंगिग भेद है नही होना चाहिए न ऐसा…. जब कोई भीड़ में आपके कन्धे को टच करे या छेड़ दे तो मत कहिये क्योंकि स्त्री पुरुष बराबर हैं जब वो भरी ट्रेन में आपसे सट कर खड़ा हो अपना उतेजित लिंग आपके जंघा पर टच करे तो आप उसे थप्पड़ मत मारिये आप भी अपनी स्तनों को उसकी पीठ से रगड़ें क्योंकि पुरुष और महिला बराबर है हमारा समाज जानबूझ कर लिंग भेद करता हैं पुरुष आपको गालियां दे तब आप भी बराबर दे .. ये लैंगिंग भेदभाव नही होना चाहिए… जब पति पीछे लगेज ढोता आये और में।की तरह नाजुक कली बन गोगल लगा गुच्ची का पर्स टांग मत चले , उन्हें कहें लाइए मैं उठाती हूँ आप पर्स पकड़िये क्योंकि स्त्री पुरुष बराबर होने चाहियें…. जब राशन मंगवाती है उनसे तो आप ही लाया करें…
अब औरतें कहेंगी आप लाती हो?
हां मैं लाती हूँ कॉलोनी में 2 किलोमीटर दूर केन्टीन है पैदल जाती हूँ पैदल आती हूँ क्योंकि ओटो की सुविधा अंदर नही 10 से 15 किलो का समान ढोती हूँ और दूसरे माले पर चढ़ती हूँ.. राशन की दुकाने बाहर हैं एक किलोमीटर के करीब.. दाल चाव्ल चीनी और समान दो थैले मेरे कन्धों पर होते हैं और 10 किलो आटे की थैली मेरे कन्धे या सर पर और मैं बेहिचक ढोती हूँ मुझे शरम नही आती और दूसरे माले चढ़ती हूँ 30 किलो के करीब वजन के साथ क्योंकि जब पति ढो सकता है तो मैं क्यों नही .. मैं कभी कुली नही करती एक सूटकेस एक ट्रैवल बेग और एक पिट्ठू बेग मेरे कन्धे पर होते हैं खुद उठाती हूँ… क्योंकि एक बार पति ने कहा था अपना समान खुद उठा जो मैं खाता हूँ वही तू भी तो खाती है फिर तुझसे क्यों नही उठता… और नही कर पाई विरोध नही कह सकी मैं स्त्री हूँ और ये अत्याचार है मुझ पर…
नही कर पाती में पुरुषों को ट्रेन में छेड़ने की हिमाकत क्योंकि ये बराबरी मुझसे नही होती मैं स्त्री हूँ स्त्री ही रहूंगी नही छोटे अधनंगे कपड़ों में शराब बीड़ी सिगरेट पियूँ क्योंकि बराबरी मुझसे नही होगी… नही रातों को पुरुषों की तरह अकेले सड़क पर घूम सकती हूँ क्योंकि हमारा समाज ही आवारा बोल देगा…
बराबरी करिये सास ससुर के साथ अपने माँ बाप को भी साथ रखिये.. क्योंकि महिला पुरुष बराबर है बराबरी का हक मिलना ही चाहिए ..पर ये बराबरी मुझसे नही होती नही कर पाती में विरोध…
हां मैंने नही जताया विरोध न काली डीपी लगा कर न सफेद…
विरोध जताना है रंगों के साथ के तुम मेरे जीवन में कितना अँधेरा भर दो फिर भी खिली रहूंगी थार में कैक्टस के फूल की तरह जंगल में आक के फूल सी पत्थरों में सत्यानासी के फूल सी नमी में पसरकंडाई के फूल सी… विरोध करूंगी सात रंगों से वो रंग जो अगर नही होंगे अगर स्त्री नही होगी तो काली होगी तुम्हारी दुनिया स्याह काली बिना रंगों की स्त्री विहीन दुनिया….
मुझे माफ़ करना मैंने नही लगाई कल काली डीपी.. जिन्होंने अमित्र किया कोई बात नही .. मैं भीड़ से थोड़ी अलग ही हूँ..
(मेरी माँ कहती थी और कहती है डाकण है तू दुनिया दायें जाती है तू बाएं उलटी कहीं की…)
Monica