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By – Saurabh Dwivedi

सात्विक विचार – विमर्श से जिंदा आदमी को जगाए रखने में सफलता मिलती है। ऐसे ही एक विमर्श बांके बिहारी मंदिर के महंत भारतेन्द्र दुबे से हुआ , जिसमें उन्होंने एक कहानी के माध्यम से इंसान के सुख का सार क्या है ? और कैसे सुख प्राप्त होगा , यह बताया।

एक आदमी एक प्रख्यात संत के पास पहुंचकर कहता है कि मुझे सुख की तलाश है। इस पूरे संसार में सुख नहीं महसूस हो रहा है। मैंने अपना सुख – चैन खो दिया है। कहीं भी मन नहीं लगता। मेरी समस्या का समाधान करिए !

संत महराज ने कहा कि सामने जो नदी है , वहाँ एक मछली रहती है। वह बोलने में सक्षम है। तुम उससे बात कर सकते हो। अपनी समस्या रखो और वह हल बता देगी।

आदमी आश्चर्य में पड़ गया। एक मछली इंसान की समस्या को हल कर देगी। हमारे सुख का सार बता देगी। हम जो इंसान सुख के लिए तड़पते हैं , गमों को दूर करने के लिए बिन पानी की मछली की भांति जान निकलने तक तड़पते रहते हैं , चूंकि हम जिंदा हैं !

वह आदमी नदी के किनारे पहुंचता है। वैसे ही मछली उसके समीप इस तरह आ जाती है , जैसे आटा डालने पर मछली खाने के लिए आतुर हो किनारे पर आ जाती है। यदाकदा हम मनुष्य ही आटे का लालच देकर जाल में फंसा लेते हैं और भक्षण कर लेते हैं।

उस बोलने वाली मछली से आदमी ने कहा कि मुझे सुख की तलाश है ? प्रतिउत्तर में मछली ने कहा मुझे भी सुख की तलाश है ! आदमी भौचक्का रह गया कि अरे इस मछली को भी सुख चाहिए। आदमी ने कहा कि आप तो जल के अंदर रहती हो। आपका सुख इस जल में ही व्याप्त है।

मछली ने उस आदमी से कहा कि यही तो मैं बताना चाहती थी। जिस प्रकार जल में ही मेरा सुख निहित है। वैसे ही आदमी का सुख इसी संसार में निहित है। संसार में ही जीवन है। जिस प्रकार से एक मछली के लिए जल सबसे बड़ी आवश्यकता है , वैसे ही मनुष्य के लिए संसार ही सबकुछ है।

अशुद्ध व विषाक्त जल में मछली भी सुख पूर्वक जिंदा नहीं रह सकती। अपितु मृत्यु का शिकार हो जाएगी , वैसे ही संक्रमित समाज में मनुष्य को भी सुख नहीं मिल सकता। अतः स्वस्थ संसार में मनुष्य सुखपूर्वक जीवन व्यतीत कर सकता है। इसलिये स्वयं में बदलाव के साथ समय – समय पर संसार व्यापक सामाजिक बदलाव की जरूरत होती है। ऐसे ही सूत्र को अपनाकर मनुष्य आध्यात्मिक एवं भौतिक रूप से सुख पूर्वक जीवन व्यतीत करेगा।

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