By – arun mishra
जिस की कहानी लिख रहे हों वो अगर सामने बैठा हो, और कहानी स्वयं सुना रहा हो, और उसकी आवाज कांप रही हो, और आंखें नम हों, तो यकीन मानिए, कलम कांपती है, बार बार रुक जाती है, चलती नही।
यह कहानी ऐसी ही है । मेरी कलम नही चल रही, इसलिए 75 वर्षीय शुक्ला जी की कहानी मैं शुक्ला जी की जुबानी सुनाता हूँ ।
‘इन्हें (पत्नी को) हार्ट अटैक हो चुका है । डॉ. कहते हैं कि 70% ब्लॉकेज है । उसी का इलाज कराने मुंबई जा रहे हैं । इनकी तबियत बेटे के जाने के बाद जादा खराब हो गई । बेटा 50 का था । सब ठीक था । उसकी पत्नी व बच्चे सभी सुखी थे । एक दिन बीमार हो गया, और होता ही गया । बड़े वाले डॉ. बोले कि कैंसर हो गया है । आखिरी है, कोई उम्मीद नही है । तीन माह तक जीवित रहेगा । इसका जो मन हो खिलाइए पिलाइए । इसका मन पूरा कीजिए ।
आखिरी के दिन थे । एक हफ्ते से ICU में था । डॉ. मुझे बुलाए । बताए कि अब ये कभी भी जा सकता है । तीन दिन से ऐसी ही हालत है । जीवित है पर नही है । आप तो पंडित जी हैं । आप सब जानते हैं ।
ICU में एक समय पर एक ही आदमी को मिलने देते हैं । मैंने डॉ. साहेब से रिक्वेस्ट किया कि हम दोनों, माता पिता, को एक साथ मिलने दें । डॉ. साहेब परमीशन दे दिए ।
मैंने लड़के की मां को समझाया कि बेटे का जाने का समय आ गया है पर उसकी आत्मा कहीं अटकी है,उसे मुक्त नही कर रही । उसकी आत्मा परेशान है । जिसे जाना ही है, उसे रोक कर परेशान करने से हमें कुछ नही मिलेगा, उसकी आत्मा को दुख जरूर होगा । लड़के की मां कलेजे पर पत्थर रख कर हाँ कर दी ।
पूरे परिवार को बुलाया । सभी एक एक कर के मिलने गए । अंत में हम दोनों गए । दो मिनट उसे देखते रहे । फिर मैंने उसके कान में कहा –
जाओ बेटे, मैंने तुम्हें पितृ ऋण से मुक्त किया !
फिर उसकी माँ ने उसके कान में कहा –
जाओ बेटे,मैंने तुम्हें मातृ ऋण से मुक्त किया !
10 सेकंड भी नही बीते
बेटे ने आंख मूंद लिया
चला गया’
साभार – अरूण मिश्रा की फेसबुक वाल से.