अगर हमारे समाज में बेटियां हमेशा अच्छी होती हैं , मां- बाप को अपने साथ रखना चाहती हैं, लड़कों से ज्यादा मां-बाप का ख्याल रखती हैं तो फिर बहुएं क्या दूसरे ग्रह से आती है जो ससुराल में उनके प्रवेश होते ही सब उल्टा पुल्टा हो जाता है, जैसे घर, घर नहीं फुटबॉल का मैदान बन जाता है, जिसमें लड़के पर फुटबॉल की तरह कब्जा करने के लिए इधर उधर से ठोकर पड़ती है।
जब मां बाप हमेशा पूजनीय और आदरणीय होते हैं जो कभी ग़लत हो ही नहीं सकते। फिर सास ससुर किस ग्रह से आते हैं कि आज भी बहू को जलाने ,उसको दोयम दर्जे में रखने में कोई कमी नहीं रखते। यहां तक कि अपने जिस बच्चे की खुशी के लिए कुछ भी कर गुजरने की बुढ़ापा आने तक दुहाई देते हैं ।उसकी खुशी का भी कोई ख्याल न कर अपनी बहू को मात देने के लिए नये-नये षड्यंत्र करते हैं । वर्चस्व और एकाधिकार के संघर्ष की इंतहा में कभी -कभी बेटा और बहू की बलि तक चढ जाती है मगर ये संघर्ष खत्म नहीं होता।
और अगर लडके अच्छे नहीं होते, बहू के आते ही मां -बाप से आंखें फेर लेते हैं तो फिर दामाद किस ग्रह से अच्छे आते हैं जो सास ससुर को अपने बेटे से बढ़कर प्रिय होते हैं।सास -ससुर खुश होते हैं कि उनका दामाद अपने माता-पिता से ज्यादा उनका ख्याल रखता है।उनकी बेटी को जरा सी भी तकलीफ़ नहीं होने देता। दुआएं देते नहीं थकते कि ऐसा दामाद ईश्वर सभी को दे।
समाज में इसके कुछ अपवाद हैं, मगर अपवादों से समाज नहीं चलता है। मेरा बस इतना ही कहना है कि बेटी और बहू, माता-पिता और सास- ससुर,बेटा -दामाद ये सभी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं, अगर एक पहलू ग़लत है तो दूसरा कभी सही हो ही नहीं सकता है। और अगर एक पहलू सही है तो दूसरा ग़लत हो ही नहीं सकता।
आज समाज को सही और ग़लत को समझने की जरूरत है। सही और ग़लत कोई भी हो सकता है इसको उम्र के साथ नहीं जोड़ा जा सकता।
( नीलम शर्मा लेखिका धुंध उपन्यास )
बढ़िया समीक्षा, पढ्न चाहूँगा ……… !!