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By :- Saurabh Dwivedi

राजनीति में वैचारिक विरोध होना सामान्य सी बात है। मतभेद के साथ राजनीतिक रिश्ते बनते – बिगड़ते रहते हैं। किन्तु आबरू पर हमला होने के पश्चात सत्ता की चाहत मे धुर विरोधियों का साथ आना उत्तर प्रदेश के ताजा घटनाक्रम से उदाहरण मिलता है , जिसकी कल्पना आम आदमी नहीं कर सकता था। सिर्फ इतना ही नहीं राजनीतिक पंडित भी इस प्रकार के गठबंधन की भविष्यवाणी नहीं कर सकते थे।

गेस्ट हाउस कांड से सम्पूर्ण भारत की जनता पूर्ण वाकिफ है। 2 जून 1995 को मायावती लखनऊ के गेस्ट हाउस में ठहरी थीं। गठबंधन की सरकार पर खतरा मंडरा रहा था। बसपा ने मतभेद के चलते सपा से समर्थन वापस लेने की घोषणा कर दी थी। सपा सरकार किसी भी प्रकार के गठजोड़ से सत्ता मे बने रहने मे असमर्थ हो चुकी थी। मुलायम सिंह यादव को मुख्यमंत्री की कुर्सी से बेमन होकर उतरना पड़ा था।

इस बीच कुछ सपाई गुंडे बदले की भावना से ना सिर्फ मायावती पर हमला किए बल्कि आबरू से खेलने की मंजिल तक पहुंच चुके थे। उनकी हत्या करने की पूर्ण योजना बन चुकी थी। इस बीच कलयुग में ब्रह्मदत्त द्विवेदी कृष्ण की तरह आबरू बचाने के लिए प्रकट हुए। उन्होंने सपाई गुंडो को मार भगाया। इस तरह से मायावती की ना सिर्फ जिंदगी बची बल्कि आबरू भी सुरक्षित रही। उन्होंने ब्रह्मदत्त द्विवेदी को अपना भाई कहा और फिर कभी उनके सामने दलीय प्रत्याशी नहीं उतारा।

किन्तु समय बदला तो मायावती का हृदय परिवर्तन भी हुआ। जो सिर्फ राजनीति मे संभव हो सकता है। किन्तु यह गठबंधन आए दिन घट रही दुष्कर्म की घटनाओं के प्रति प्रतिरोध करने की क्षमता का ह्वास करता है। चूंकि एक राजनीतिक नेत्री सत्ता सुख हेतु आबरू लूटने वाली मानसिकता के दल से गठबंधन कर लेती हैं। जिससे राजनीति लज्जित हो या ना हो पर समाज का संवेदनशील तबका लज्जित जरूर होता है।

सपा – बसपा के गठबंधन से राजनीति का घिनौना निचला स्तर नजर आया है। जिसकी उम्मीद की जाना बेमानी साबित होता। परंतु मायावती ना सिर्फ गठबंधन कीं बल्कि मुलायम सिंह यादव के साथ मंच साझा कर जिताने की अपील कीं !

एक तरफ समाज दुष्कर्म की घटनाओं से पीड़ित है। लज्जित समाज में बेटियां लज्जित होती हैं। निर्भया जैसी घटनाओं को याद कर रूह कांप जाती है। परंतु आजाद भारत के नेतृत्वकर्ता जाने क्या संदेश देना चाहते हैं ? अब शायद ही ऐसा कोई राजनीतिक शेष रह जाए जिसके नेतृत्व का अनुकरण किया जा सके। या फिर उनका संदेश समाज हेतु व्यापक हो। यह व्यवसायिकता से भी सतही घृणित निर्णय कहा जाएगा जो समाज के किसी भी नैतिक सांचे मे ढलता हुआ महसूस नहीं होता ! इसी के साथ कहा जा सकता है कि वर्तमान नेतृत्वकर्ता की सोच सिर्फ सत्ता प्राप्ति तक सीमित हो चुकी है जो नेतृत्व की परिभाषा के खिलाफ संकुचित मानसिकता का प्रतीक कही जाएगी। कुलमिलाकर नेतृत्व की परिभाषा व व्यापक परिक्षेत्र में यह गठबंधन कहीं भी नहीं टिकता सिर्फ चुनावी गुणाभाग के इसका कोई अस्तित्व नहीं है।

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