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By :- Ajeet singh

चित्रकूट : यह कहावत नहीं वेदना थी चित्रकूट के पाठा क्षेत्र की, यहां महिलाओं को कई किलोमीटर पैदल चलकर मटकी में पानी लाना पड़ता था, लिहाजा यहां एक कहावत चल निकली ” गगरी ना फूटै खसम मर जाए ” अर्थात महिलाओं को गगरी का जल खसम अर्थात पति से भी अधिक प्रिय होता था, अब समय के साथ यह कहावत भी गूंजना बंद हो गई है, कारण अब मटकी ही गायब हो गई है, अब मटकी के बजाय प्लास्टिक के डिब्बे और ड्रम पेयजल के साध्य हैं .

कहावत विलुप्त हो जाने का यह मायने कतई नहीं है कि पाठा क्षेत्र से पेयजल संकट का समाधान हो गया. आज भी पेयजल को लेकर यहां के दर्जनों गांवों में लोग हलाकान होते हैं, महिलाएं अब मटकी की बजाय डिब्बों में पानी ढोती हैं और हर घर मे प्लास्टिक के ड्रम मौजूद हैं, बात करते हैं पाठा क्षेत्र के गोपीपुर गांव की, यहां पेयजल की समस्या को देखते हुए लोग यहां अपनी बेटियों की शादी से भी कतराते हैं.

लिहाजा इस गांव के 40 वर्ष तक की उम्र के 50 फीसदी युवा कुंआरे हैं, आजादी के बाद तमाम सरकारें आई और गईं, तमाम नेता इनके वोट लेकर विधानसभा और लोकसभा चुनाव जीतकर सदन तक पहुंचे लेकिन ग्रामीणों की समस्या ज्यों की त्यों बनी हुई है, यह नियति है या फिर दुर्भाग्य आजादी के 72 वर्ष बाद भी पेयजल की समस्या पाठा क्षेत्र के दर्जनों गांवों में विद्यमान है, हालांकि सरकारों ने इस क्षेत्र में कूप निर्माण से लेकर सोलर पंप तक और ट्यूबबेल से लेकर चेकडैम तक तमाम यत्न किये हैं लेकिन शासन की योजनाएं भी भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गईं, यहां कार्यरत जेई से लेकर सचिव तक लक्जरी गाड़ियों में घूमने लगे, जिसे भी मौका मिला उसने योजनाओं को हजम कर दिया, प्रधान, प्रमुख से लेकर हर जिम्मेदार ने मलाई खाई और पेयजल समस्या ज्यों की त्यों, उम्मीद पर दुनिया कायम है, अब उसी अनजानी, अनदेखी उम्मीद के सहारे पाठा के ग्रामीण जीवन काट रहे हैं l

( अजीत सिंह-विशेष संवाददाता चित्रकूट )

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