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By – Saurabh Dwivedi

जैसी दृष्टि वैसी सृष्टि सिर्फ एक वाक्य ही नहीं है , बल्कि महाभारत काल से दृष्टि का विशेष महत्व है। प्रत्येक मानव के पास मर्मचक्षु हैं , जैसे वीर पुरूष अर्जुन के पास मर्मचक्षु थे।

सामान्य दृष्टि से अर्जुन श्रीकृष्ण को देख पा रहे थे। उस देह को जिसे हर व्यक्ति देख सकता है। जब वासुदेव अर्जुन को गीता ज्ञान दे रहे थे। उस वक्त वासुदेव ने स्वयं अर्जुन के अंदर विश्व स्वरूप देखने के लिए जिज्ञासा उत्पन्न की , तत्पश्चात अर्जुन को कहते हैं कि देखो मुझे ?

अब अर्जुन के हालात बड़े निरीह थे। वे स्वयं कहने लगे कि वासुदेव मैं कुछ भी नहीं देख पा रहा हूँ ! सिर्फ इतनी सी बात से मन में सवाल उपजता है कि जब वासुदेव ने स्वयं विश्व स्वरूप देखने की बात कही तो अर्जुन देख क्यों नहीं पाए ? वासुदेव ने पहले ही ऐसी शक्ति क्यों ना दी कि अर्जुन देख सकते ?

जब अर्जुन ने ना देख पाने की असमर्थता जताई , तब श्रीकृष्ण ने स्वयं कहा कि इन मर्मचक्षुओं से तुम मुझे नहीं देख सकते अर्थात सामान्य नजरों से हम सामान्य संसार , व्यक्ति और घटनाओं को ही देख पाते हैं।

स्वयं श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दिव्य दृष्टि प्रदान की तत्पश्चात अर्जुन उनके विश्व स्वरूप को देख सके और देखते ही कुरूक्षेत्र के परिणाम से लेकर सम्पूर्ण संसार के ज्ञान से ओतप्रोत हो जाते हैं। अर्जुन समझ जाते हैं कि साक्षात ईश्वर के सानिध्य में हैं , जिसे सिर्फ एक सखा के भाव से देख रहे थे।

इस प्रकार से संजय को ऋषि वेदव्यास से दिव्य दृष्टि पहले ही प्राप्त थी। इसलिये वे भगवान के विश्व स्वरूप को देखने में पहले ही समर्थ थे। महाभारत के इस कथानक से वर्तमान में दृष्टि के फर्क को साफ महसूस किया जा सकता है।

मनुष्य के अंदर जैसी दृष्टि है , वह वैसा देख सुन और समझ सकता है। एक ही वाक्य के भिन्न – भिन्न अर्थ लगाए जा सकते हैं। औरत को देखकर अलग – अलग भाव जन्म लेते हैं , औरत की देह वही है और वैसी ही है। सामान्य दृष्टि में भी कुत्सित दृष्टि को मार देने से सामाजिक व्याधि का अंत किया जा सकता है। चूंकि इस दृष्टि के भी अनेक स्वरूप हो जाते हैं।

अक्सर लोग कहते हैं कि ईश्वर हैं तो दिखते क्यों नहीं ? अर्जुन को भी नहीं दिखे थे , फिर मर्मचक्षु वालों को कैसे दिख जाएं ? ईश्वर का अनुभव ही किसी को हो जाए तो पर्याप्त है। ईश्वर को देखने के लिए दिव्य दृष्टि चाहिए और मनुष्य तो सामान्य सी दृष्टि का पूर्ण विकास नहीं कर पा रहा है। अभी उसकी इसी दृष्टि में बड़ी व्याधियां समा चुकी हैं।

हालात ऐसे हैं कि लिखे हुए का वास्तविक अर्थ भी लोग नहीं लगा पा रहे हैं। ये दृष्टि का ही फर्क है कि हम देह और मन से पार आत्मा के बारे में सोच नहीं पाते ! इंसान के जीवन का लक्ष्य ही आत्मज्ञान है परंतु बाहर इतना उलझ गए हैं कि आत्मज्ञान की ओर चिंतन ही नहीं हो पा रहा है।

एक ऐसी दृष्टि का विकास स्वयं नहीं कर पा रहे कि जीवन और सांसारिक तत्व को महसूस कर सकें। विज्ञान और तकनीक से सकारात्मक – सृजन के काम किए जा सकते हैं , परंतु हम विध्वंसक काम कर रहे हैं। भले गाली – गलौज ही क्यों ना हो , यह भी इतना विध्वंसक है कि आदमी की ऊर्जा पर प्रहार करता है।

मुख्यतया भारत के युवाओं में निरा खालीपन दिख रहा है। नकारात्मक ऊर्जा से भरे हुए हैं। उनका चिंतन ऐसा बिल्कुल नहीं है कि कह सकें , ये स्वामी विवेकानंद के भारत का युवा है। शायद सरकार और समाज वैचारिक – आध्यात्मिक समृद्धि से चूक गया है। इसलिये ऐसी-ऐसी घटनाएं घटित हो रही हैं , जिनकी कल्पना ” स्वप्न दृष्टि ” में भी नहीं हो सकती है।

इसलिये ” विजन फिल्टरेशन ” की जरूरत है। दृष्टि को वैसे ही छानने की जरूरत है , जैसे हम चाय छानकर पत्ती अलग कर देते हैं और तत्व का पान कर लेते हैं। तत्पश्चात ऊर्जामय महसूस करते हैं। वैसे ही दिव्य दृष्टि प्राप्त करने के मार्ग पर चलेंगे तो सचमुच समाज और संसार को समझ सकेंगे और लिखे हुए का व्यापक अर्थ लगा सकेंगे , दूरदर्शिता की सोच से सुंदर महकदार बाग जैसे संसार का निर्माण हो सकता है , पर स्वनिर्माण से ही संसार का निर्माण निश्चित है।

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