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By :- Saurabh Dwivedi

परमात्मा से प्रार्थना भी इस बात के लिए होती है कि हे प्रभु हमें अंधकार से प्रकाश की ओर ले चलो , हमारा अंतर्मन प्रकाशित हो सके। पर सवाल है कि संसार प्रकाशमय है अथवा अंधकार से युक्त है। हाल ही के घटनाक्रम पर नजर रखी जाए तो अंधकार साफ नजर आता है। परंतु इस अंधकार को महसूस करने के लिए भी नजर हो और नजरिया चाहिए। एक संकीर्ण नजरिया हमें अंधकार की ओर ले जाता है तो वहीं सोचने का व्यापक नजरिया जिंदगी और समाज को प्रकाशित करता है।

जिस प्रकार से बलात्कार की घटनाएं देश के कोने-कोने में बढ़ रही हैं। उससे हमारी सामाजिक संरचना पर सवाल खड़े हुए हैं। वैसे यह कोई आज की बात नहीं है , एक दिन भी बात नहीं है। इस प्रकार की कलंकित घटनाएं सदियों की असफलता की प्रतीक होती हैं। जिसे लेकर समाज की सबसे छोटी इकाई परिवार के अंदर तक गंभीरता नहीं दिखती।

जीवन प्रबंधन को लेकर कोई व्यापक सोच नजर नहीं आती है। समय की रफ्तार के साथ जिंदगी की रफ्तार नहीं बढ़ सकी है। कहने का अर्थ है कि परिवार और समाज में जीवन प्रबंधन जैसी कोई चीज नहीं है। इस संबंध में कहीं कोई चिंतन नहीं होता ! यह व्यक्तिगत सोच की बात रह गई है कि जो जागरूक हैं , वे इस प्रबंधन को समझ रहे हैं। उन्होंने समय के बदलाव के साथ कुछ बदलाव स्वीकार किए हैं तो यह सत्य है कि उनकी जिंदगी वर्तमान परिप्रेक्ष्य पर काफी हद तक ठीक है। किन्तु जिन्होंने समय प्रबंधन और जीवन प्रबंधन को नहीं सीखा वहीं से समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं। वह परिवार के अंदर हो या समाज के अंदर हो पर समस्या है।

जीवन को लेकर गंभीरता की आवश्यकता हमेशा से रही है। इस गंभीरता की कमी की वजह से कुंठित मानसिकता का जन्म हुआ। जैसे – जैसे कुंठित मानसिकता का विस्तार हुआ वैसे – वैसे इस मानसिकता ने ना सिर्फ समाज को शर्मसार किया बल्कि कभी ना भूल पाने वाली कलंकित घटनाओं को जन्म दिया।

सोचने वाली बात है कि खुले सामाजिक परिदृश्य पर देखा जाए तो बलात्कार कोई नहीं चाहता। फिर भी बलात्कार हो रहे हैं , ऐसे मे चिंता की बात है कि फिर भी बलात्कार हो रहे हैं। जबकि एक बहुत बड़ी आबादी इस घृणित कृत्य के खिलाफ खड़ी पाई जाती है। पर इस खिलाफत का असर बलात्कारी मानसिकता पर शायद नहीं पड़ रहा है। यदि इन पर असर पड़ता तो बलात्कार की घटनाएं नहीं होतीं।

ये वही समाज है ; जहाँ सेक्स बिन विवाह के पाप माना जाता है। विवाह के बाद भी सेक्स बड़ी निजी सी बात है परंतु यह तय है कि विवाह होता ही इसलिये है कि अब पति-पत्नी के रूप में सेक्स किया जा सकता है। इसे सामाजिक प्रमाणिकता मिल जाती है। यहीं तक बंद कमरे में सेक्स वैध है , वह भी अंतिम सत्य शादी की मान्यता है।

विवाह की एक निर्धारित उम्र है। विवाह का धार्मिक – जातीय आधार भी है। इस विवाह पद्धति से सभी वाकिफ हैं कि परिवार की मंशा से विवाह किस प्रकार होता है। जहाँ पति-पत्नी के रिश्ते मे बंधने वालों में प्रेम नहीं होता बल्कि उनकी जाति – धर्म और पारिवारिक मान्यता होती है।

प्रेम विवाह इस दौर मे होने लगे हैं , फिर भी भारत के बड़े भूभाग में विवाह का आज भी यही सच है कि वह पारिवारिक – सामाजिक पद्धति से ही होता है। प्रेम जैसा शब्द और भाव प्रतिबंधित सा है , वह शादी के बाद तो किया जा सकता है परंतु शादी के पहले प्रेम अच्छा नहीं माना जाता है। बल्कि यह चरित्र हनन का कारण बन जाता है।

जिस समाज में प्रेम ही अपराध होगा। प्रेम मे अपराध की भावना छिपी होगी और वैवाहिक जीवन में प्रेम शायद ही जन्म ले सके वहाँ देह ही प्राथमिकता हो जाती है। बिन प्रेम भाव के जब देह से देह का मिलन होता है तो वह मात्र हवस मिटाने के सिवाय कुछ और नहीं है ! इसी प्रकार के दैहिक संबंध से बच्चों का जन्म भी हो रहा है।

गौर करने की बात है कि हवस मिटाने के साथ इत्तेफाक से बच्चों का जन्म होगा तो प्रेमिल संसर्ग के सुख के सिवाय जन्में बच्चों के मानसिक स्तर में अंतर होगा। यह वैज्ञानिक और आध्यात्मिक दोनो है। शेष कमी सामाज का निम्न कोटि का माहौल पूरा कर देता है।

अब समझना होगा कि हाल के समय मे बलात्कार की घटनाएं कैसे रूकेगीं ? जब समाज मे संक्रमित मानसिकता के लोग अधिक हो गए हैं। साथ ही न्याय मे देरी की वजह से हम यहाँ आकर खड़े हो गए हैं कि अब भीड़ की आवाज पर पुलिस सीधा एनकाउंटर कर रही है , जिसे न्याय में देरी से क्षुब्ध लोगों का समर्थन प्राप्त हुआ है। महिलाओं ने भी यही आवाज दी कि निर्भया के आरोपियों को अब तक फांसी नहीं हो सकी तो आखिर कैसे उम्मीद करें कि इन आरोपियों को भी शीघ्र सजा हो जाती ! अर्थात हम सामाजिक – वैधानिक न्यायिक रूप से असफल हुए हैं ! बेशक खिली धूप होगी , प्रकाश नजर आ रहा होगा परंतु हकीकत यही है कि हमारे चारो तरफ जिंदगी में अंधेरा व्याप्त है। जिस पर शीघ्र प्रकाश हो पाना असंभव लगता है। अब सचमुच परमात्मा ही अंधकार से प्रकाश की ओर ले जा सकती है। यह इतना बड़ा पहलू है कि इतने शब्दों में परिभाषित नहीं किया जा सकता है। सिर्फ एक छोटी सी कोशिश की जा सकती है कि समाज के लोग यहाँ से जिम्मेदारी समझें और चेतना जागृत करने का प्रयास करें व समय की रफ्तार से बदलाव को भी स्वीकार करें। जीवन में प्रेम , सहजता और सरलता को प्राथमिकता दें। काश हमारे देश की राजनीति जिंदगी पर केन्द्रित होती तो अवश्य हम जीवन के आयाम को स्पर्श कर सकते।

( चित्र फेसबुक से साभार रोहित जी रूसिया )

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